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श्रौशुभचन्द्रांचायवर्येण विचितम् सन्मुखाः सकलाः लोकाश्चेलुश्चंचलमानसाः ।
समीक्ष्य तं प्रभुंनेमुः सर्वे तत्पादपंकजम् ॥ ७८ ।। राजा यमदंड के इस प्रकार के वचन सुनकर महाराज उपश्रेणिक ने उसकी समस्त प्रतिज्ञाओं को स्वीकार किया और प्रसन्नतापूर्वक उसकी तिलकवती पुत्री के साथ विवाह कर उसके साथ भाँति-भांति की क्रीड़ा करते हुए महाराज उपश्रेणिक विशाल सम्पत्ति के साथ राजगृह नगर को रवाना हुए और मार्ग में अनेक प्रकार वन-उपवनों को शोभाओं को देखते राजगृह नगर के समीप आकर पहुंचे। महाराज उपश्रेणिक के आने का समाचार सारे नगर में फैल गया महाराज उपश्रेणिक के शुभागमन सुनते ही समस्त नगर-निवासी मनुष्य, राजसेवक एवं महाराज के समस्त पुत्र, अपने को धन्य और पुण्यात्मा समझकर, उनके दर्शन के लिए अतिशय लालायित होकर शीघ्र ही उनके सामने स्वागत के लिए आये और आकर विनयपूर्वक महाराज के चरणों को नमस्कार किया ॥७६-७८॥
चिर वासर संरूढ विप्रलंभादवाप्य तं । निनिमेषत्वमत्यंतं सर्वे संतोषपूरिताः ॥ ७९ ॥ संभाष्य वचनं रम्यमन्योन्यं प्रीत्यवंचिताः । स्थित्वा क्षणं क्षणैः सार्द्ध केलुः सर्वे पुरं प्रति ॥ ८० ।।
चिरकाल से महाराज के वियोग से दुःखित उनके दर्शन से संतुष्ट हो समस्तजन उपश्रेणिक महाराज की और प्रेमपूर्वक वार्तालाप करते हुए उन लोगों ने कुछ समय तक वहीं ठहरकर पीछे महाराज से नगर में प्रवेश करने के लिए प्रार्थना की। तथा महाराज के चलने पर समस्त नगर निवासी जनों ने महाराज के पीछे-पीछे राजगृह नगर की ओर प्रस्थान किया ॥७६-८०॥
आनकानां महाध्वानाः शंखकाहलनिस्वनाः । गंभीरदुंदुभिध्वाना
बभूबुरटनोत्सवे ।। ८१ ॥ नटंति लयसंरूढा हावभावावलंबिताः । नर्तक्यस्तर्जयंत्यश्व सुराणां वामलोचनाः ।। ८२ ।। सतोरणं पुरं प्रापत्केतुमालाविराजितम् ।
नानाशोभान्वितं पश्यंश्चतुः पथ शतोत्तमं ॥ ८३ ॥ महाराज उपश्रेणिक के नगर में प्रवेश करते ही उनके शुभागमन के उपलक्ष्य में अतिशय उत्सव मनाया गया। पटह, शंख, काहल, दुन्दुभि आदि मनोहर बाजे बजने लगे तथा उत्तमोत्तम हाव-भावों के दिखाने में प्रवीण, नृत्य-कला में अति चतुर देवांगनाओं के मद को चूर करनेवाली, और अति सुन्दर वेश्याएँ अधिक आनन्द-नृत्य करने लगीं। महाराजा उपश्रेणिक बहुत दिनों के बाद नगर के देखने से अति आनन्दित हुए और सर्वांग सुन्दरी महारानी तिलकवती के साथ-साथ
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