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________________ ३० पयोधरमहाकुंभ निधौ सर्पायते पुनः । यस्य हस्तद्वयं कुर्वन्कुच वस्त्रापसारणं ॥ ६३॥ हंसायते तरां धीमान् यस्याज घनसारसे । रतिपानीय सुस्वादे मदनोत्कर पंकजे ।। ६४ ।। क्रीड़येत्थं च भूपालो व्याकुली कुरुते च तां । क्रीडाब्जताड़नेनैव चुंबनेन घनेन च ।। ६५ ।। इस प्रकार नगरवासियों के कथा- कौतुहलों को सुनते महाराज उपश्रेणिक ने रानी तिलकवती के साथ-साथ अनेक प्रकार की शोभाओं से सुशोभित राजमंदिर में प्रवेश किया। राजमंदिर में प्रवेश करने पर महाराज उपश्रेणिक ने तिलकवती के उत्तमोत्तम गुणों से मुग्ध हो उसे अतिशय मनोहर क्रीड़ा योग्य मकान में ठहराया और नवोढ़ा तिलकवती के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ा करने लगे। कभी-कभी तो महाराज कमल के रस-लोलुप भँवरे के समान रानी तिलकवती के मुख-कमल के रस का आस्वादन करते, और कभी-कभी चन्दन लता पर गन्ध-लोलुप भ्रमर के तुल्य उसके साथ उत्तान क्रीड़ा करते । जान पड़ता था कि स्तनरूपी दो मनोहर क्रीड़ा पर्वतों से युक्त महारानी तिलकवती का वक्षःस्थल वन है और महाराज उपश्रेणिक उस वन में विहार करनेवाले मनोहर हिरण है। जब उपश्रेणिक अपने हाथों से महारानी तिलकवती के स्तनों पर से अति मनोहर वस्त्र को खींचते थे तब जान पड़ता था कि उसके स्तनरूपी खजाने के कलशों पर उनकी रक्षार्थ दो सर्प ही बैठे थे । महारानी तिलकवती के, मैथुनरूपी जल से युक्त कामदेवरूपी मनोहर कमल के आधारभूत, दोनों जंघारूपी सरोवर के बीच महाराज उपश्रेणिक ऐसे मालूम पड़ते थे मानो सरोवर में हंस ही क्रीड़ा कर रहा है। रानी तिलकवती के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ा कर महाराज उपश्रेणिक ने उसे केवल क्रीड़ा के ताड़नों से व्याकुल ही नहीं किया था किन्तु निर्दयता के साथ वे उसे चुम्बनों से भी व्याकुल करते थे ।। ८८-६५ ।। Jain Education International ततस्तस्यां सुतो जातश्चिलातीनामभाक् शुभः । अचिरेणैव कालेन वृद्धि पत् इति सुकृतविपाकात् पाकरम्यां रमयति वरकांतां कांतिदीप्रां समाजोद्भूतरूपांकलां सुरनारी इस प्रकार प्रेमपूर्वक चिरकाल क्रीड़ा करने से रानी तिलकवती के चलाती (चलातकी) नाम का उत्तम पुत्र उत्पन्न हुआ और अत्यंत भाग्यशाली वह चलातकी थोड़े ही काल में बड़ा हो गया इस रीति से पुण्य के महात्म्य से अत्यंत मनोहर, नवीन स्त्रियों में उत्तम, अत्यंत उज्ज्वल, हरेक कला में प्रवीण, समस्त पुण्यफलों से उत्पन्न, उत्तम रूप वाली, और समस्त देवांगनाओं के समान श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् सुकृत सनिखिल फल शुभायतः ।। ६६ ॥ नवीनां । प्रवीणाम् ।। ६७ ।। कां । रूपसंपत्सभानां ॥ ६८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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