________________
२४२
श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
लिये। किंतु व्रत धारण करते समय तुंकार शब्द से उत्पन्न क्रोध का त्याग नहीं किया था । मुनिराज के उपदेश के समाप्त हो जाने पर सब लोग नगर में आ गये। मैं भी अपने घर आ गई। मेरे भाई जैसे आठ मदयुक्त थे उनके संसर्ग से मैं भी आठ मदयुक्त हो गई। जिस बात की मैं हठ करती थी उसे पूरा करके मानती थी । यहाँ तक कि मुझे हठीली जान मेरा कोई विवाह भी नहीं करता था इसलिए जिस समय मैं युवती हुई तो मेरे पिता को परम कष्ट होने लगा । मेरी विवाह संबंधी चिंता उन्हें रात-दिन सताने लगी ।
उसी समय एक सोम शर्मा नाम का ब्राह्मण था । सोम शर्मा पक्का जुआरी था । कदाचित् सोम शर्मा जुआ खेल रहा था । उसने किसी बाजू पर अपना सब धन रख दिया । और तीव्र दुर्भाग्योदय से उसे वह हार गया। सब धन हारने पर सब जुआरियों ने सोम शर्मा से अपना धन माँगा तो वह न सका इसलिए जुआरियों ने उसे किसी वृक्ष से बाँध दिया। और बुरी तरह लात, डंडे, घूंसों से मारने लगे। शिव शर्मा के कान तक भी यह बात पहुँची वह भागता-भागता शीघ्र ही सोम शर्मा के पास गया और उससे इस प्रकार कहने लगा
प्रिय ब्राह्मण ! यदि तुम मेरी पुत्री के साथ विवाह करना स्वीकार करो तो मैं इन जुआरियों का कर्जा निपटा दूं और तुम्हें इनके चंगुल से छुड़ा लूं । बस, हे श्रेष्ठिन् ! मेरे पिता के ऐसे हितकारी वचन सुन सोम शर्मा ने कहा
ब्राह्मण सरदार ! आपकी कन्या में ऐसा कौन-सा दुर्गुण है जिससे उसके लिए कोई योग्य वर नहीं मिलता और पापी, जुआरी, दुष्टों द्वारा दंडित, मुझ न कुछ पुरुष के साथ उसका विवाह करना चाहते हैं । सोम शर्मा के ऐसे वचन सुन शिव शर्मा ने कहा
प्रियवर ! मेरी पुत्री में रूप आदि का कुछ भी दोष नहीं है वह अतिशय रूपवती, सुन्दरी है । अनेक कला-कौशलों की भंडार है । किंतु उसमें क्रोध की कुछ मात्रा अधिक है । वह तुंकार शब्द को सहन नहीं कर सकती। बस, जो कुछ दोष है सो यही है । तुम अपने जीवन-सुख भोगने के लिए यही करना कि हम तुम का ही व्यवहार रखना, मैं तू का नहीं रखना । इसके अतिरिक्त दूसरा तुम्हें कोई कष्ट न भोगना पड़ेगा। शिव शर्मा के ऐसे वचन सुन और उस कष्ट को कुछ न समझ सोम शर्मा ने उसके साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया । एवं मेरे पिता ने तत्काल जुआरियों का कर्ज पटा दिया और आनंदपूर्वक उसे अपने घर ले आये। कुछ दिन बाद किसी उत्तम मुहूर्त में सोम शर्मा के साथ मेरा विवाह हो गया । मैं उसके साथ आनंदपूर्वक भोग भोगने लगी । वह मुझसे सदा तुम का व्यवहार रखता था । इसलिए मुझे परम संतोष रहता था । एवं हम दोनों दंपती का आपस में स्नेह बढ़ता ही चला जाता था ।।८७- १०२ ॥
Jain Education International
स
अन्यदा नटनाद्यं लोकयंस्तत्र संस्थितः । विविधाद्भुत सद्वेष चित्राश्चर्य सुहासकृत् ॥ १०३॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org