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________________ श्रेणिक पुराणम् २४१ मत् शीलं संपरिज्ञाय मां वृणोति न कश्चन । पितृणां च तदा कष्टं जातं मद्यौवने क्षणात् ।। ६२ ।। एकदा सोमशर्माख्यो द्यूतव्यसनवंचितः । द्विजो वित्तं महाद्यूते हारयामास पापतः ॥ ६३ ।। द्यूतकृद्भिस्तदा सोऽपि याचयद्भिनिजं वसु । वृक्षे संरोप्य सल्लोष्टस्ताड्यते यष्टिमुष्टिभिः ॥ १४ ॥ श्रुत्वा मज्जनकस्तत्र गत्वा तं कैतवं प्रति । इत्याख्यद्विज मे कन्यां चेद्वरिष्यसि सत्वरं ।। ६५ ॥ मोचयामि तदा वित्तं दत्त्वैतेभ्यः शुभावहम् । सोऽवोचद्विजाधीश शिवशर्मन् धनाधिप ।। ६६ ॥ केन दोषेण सा कन्या दीयते मम पापिनः । द्यूतव्यसनशक्तस्य पीड्यमानात्मनः खलः ॥ १७ ॥ मत्पितेति वचोऽवादीन्न दोषो भपसंभवः । किंतु कोपकृतो दोषो मत्सुतायां यथाकथम् ॥ १८ ॥ त्वंकारप्रभवं शब्दं सहते सा न सुंदरी । यूयं वयं प्रकर्त्तव्यं त्वया जीवनहेतवे ।। ६६ ॥ तथेति प्रतिपन्नोऽसौ कष्टेन वसुवर्षणः । मत्पित्रा मोचितो दुःखादानीतो निजवेश्मनि ॥१०॥ महता संभ्रमेणैव कारिता पाणिपीड़नम् । सेनाहं सुखमालेभे ततो रतिसमुद्भवं ॥१०१॥ यूयं यूयमिति कृत्वा माँ स वादयते सदा । अतः सुखमवाप्ताहं प्रौढयौवनसंभवं ॥१०२॥ कदाचित् शुभ्र नाम के वन में एक परम पवित्र मुनिराज, जिनका नाम गुणसागर था, आये मुनिराज का आगमन-समाचार सुन राजा आदि समस्त लोग उनकी वंदनार्थ गये। मुनिराज के पास पहुँचकर सभी ने भक्ति-भाव से उन्हें नमस्कार किया। और सब-के-सब उनके पास भूमि पर बैठ गये। उन सभी को उपदेश-श्रवण के लिए लालायित देख मुनिराज ने उपदेश दिया। उपदेश सुनकर सभी को परम संतोष हुआ। और अपनी सामर्थ्य के अनुसार यथायोग्य सगी ने व्रत भी धारण किये। मैं भी मुनिराज का उपदेश सुन रही थी मैंने भी श्रावक व्रत धारण कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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