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________________ श्रेणिक पुराणम लूनबालधि सत्स दर्पोच्छ्वासितवायुके । संलूनचक्रसच्चक्रिविशिष्टवडवामुखे Jain Education International वेलायंते नरा दीप्ता दशदिक्सर्पिणः क्रुधा । नावायंते महायानास्तुरंगास्तरलांह्रयः ॥ १५४॥ ॥ १५३॥ असिसंघट्टसंभूत स्फुलिंगा वह्नितां गताः । खड्गाखड्गि नराः केचिन्मुष्टा मुष्टिकचाकचि ।। १५५ ।। कुंताकुंति महातीव्रं वक्त्रrafta भटास्तत्र भुजाभुजिपदापदि । मुंडामुंडिगदादि ॥ १५६॥ बाणाबाणि महातीव्रा घोटकाघोटकिस्फुटं । द्विरदाद्विरदि क्रोधाद्रथारथि नरानरि ।। १५७ ॥ शब्दा शब्दि क्रुधाक्रोधिलोष्टलोष्टिनृपानृपि । योयुध्यते च वैरेण भटाभट शिलाशिलि ।। १५८ ।। वंशावंशिभटा केचिद्वृक्षावृक्षि हलाहल । ( कुलक) ॥१५॥ इत्थं रणे तयोर्जाते प्रजापालो विषण्णधीः । प्रचंडं दुर्दमं मत्त्वा सचितोऽभूत्स्व मानसे ॥ १६० ॥ ज्योंही मुनिवर धर्मघोष के मुख से राजा श्रेणिक ने यह बात सुनी उन्हें अति प्रसन्नता हुई । वे अपने मन में कहने लगे- समस्त पापों का नाशक जिनेन्द्र शासन धन्य है । सत्यवक्ता मुनिवर धर्मघोष भी धन्य हैं। अहा ! जैसी सत्यता जैन धर्म में है, वैसी कहीं नहीं । तथा इस प्रकार मुनिराज धर्मघोष की बार-बार प्रशंसा कर महाराज ने मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया । एवं वे दोनों दंपती वहाँ से उठकर मुनिवर जिनपाल के पास गये। उन्हें सविनय नमस्कार कर राजा श्रेणिक ने पूछा २१६ भगवन्! आज आप आहारार्थ मेरे मंदिर में गये थे, आपने मेरे मंदिर में आहार क्यों नहीं लिया ? मुझसे ऐसा क्या घोर अपराध बन पड़ा था ? कृपा कर मेरे इस संदेह को शीघ्र दूर करें । राजा श्रेणिक के ऐसे वचन सुन मुनिराज जिनपाल ने भी वही उत्तर दिया। जो मुनिवर धर्मघोष ने दिया था । मुनिराज से यह उत्तर पाकर महाराज फिर अचंभे में पड़ गये। मन में वे ऐसा सोचने लगे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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