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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
हैं, और न शील रहित स्त्रियाँ हैं, और न निर्धन पुरुष बसते हैं ।। ६७-६८ ।। वहाँ के पुरुष उत्तम कुबेर के समान ऋद्धि के धारण करनेवाले और स्त्रियाँ देवांगनाओं के समान हैं ॥ ८१ ॥ जगहजगह पर कल्पवृक्षों के समान वृक्ष हैं। और स्वर्गों के विमानों के समान सुवर्ण से घर बने हुए हैं वहाँ राजा इन्द्र के समान अत्यन्त बुद्धिमान हैं, वहाँ ऊँचे-ऊँचे धान्यों के खेत और वृक्ष, ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो वे मूर्तिमान अत्यन्त शोभा है और अपने पराक्रम से इस लोक को भलीभाँति जीत कर स्वर्गलोक के जीतने की इच्छा से स्वर्गलोक को जा रहे हैं ।।६०-६१।।
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उस नगर के रहनेवाले भव्य जीव मनुष्य नाना प्रकार के व्रतों से भूषित होकर केवलज्ञान को प्राप्त कर तथा समस्त कर्मों को निर्मूलन कर परम धाम मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥१२॥ और वहाँ की स्त्रियों के प्रेमी अनेक पुरुष भी व्रतों के सम्बन्ध से श्रेष्ठ चरित्र को प्राप्त कर स्वर्ग को प्राप्त होते हैं क्योंकि पुण्य का ऐसा ही फल है ।। ६३ ।। वहाँ के कितने एक सुख के अर्थी भव्य जीव, उत्तम, मध्यम, जघन्य, तीन प्रकार के पात्रों को दान देकर भोग भूमि नामक स्थान को प्राप्त होते हैं और जीवनपर्यन्त सुख से निवास करते हैं ।। ६४-६५।। राजगृह नगर के मनुष्य ज्ञानवान हैं. इसलिए वे विशेष रीति से दान तथा पूजा में ही ईर्ष्या-द्वेष करना चाहते हैं और ज्ञान में (कला-कौशलों में) कोई किसी के साथ ईर्ष्या तथा द्वेष नहीं करता ॥ ६६ ॥ उसमें जिन - मन्दिर तथा राज- मन्दिर सदा जय-जय शब्दों से पूर्ण, उत्तम सभ्य मनुष्यों से आकीर्ण, याचकों को नाना प्रकार के फल देनेवाले शोभित होते हैं ।। ६७॥
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शास्ता भूतस्य पुण्येन लक्षणांकित विग्रहः । उपश्रेणिक इत्याख्यांदधद्दीप्तयशः शुभः ॥ ६८ ॥ ज्ञानेन कल्पवृक्षत्वं ज्ञानेन गुरुतांगतः । तेजसा चन्द्ररूपत्वं प्रतापेनाकतांचयः ॥ εε॥ ऐश्वर्येणेन्द्रतां यातो धनेनराजराजताम् । गाम्भीर्येण समुद्रत्वमित्यनेक गुणाश्रितः ॥ १००॥ त्यागी भोगी सुखी धर्मी दाता वक्ता विचक्षणः । शूरो भीरुः परोमानी ज्ञानि यो दिद्युतेभुवि ।। १०१ ।। वलेन चतुरंगेणाभूत्साध्यं स्वबलेन किम् । किं तस्य महाराजस्य से वितस्य महीधरैः ॥ १०२॥ महिषीतस्य संजाता रूपलावण्य भूषिता । इन्द्राणी पुरु दूतस्येन्द्राणीव च महाप्रिया ॥ १०३ ॥ तनूदरी गुणैः स्थूलारजयद्भूपतिं पतिम् । गत्या विभ्रमदृस्या च भूविकारेण सन्ततम् ॥ १०४॥
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