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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
चिद्रूपं केवलं शुद्धं निराबाधं निरंजनं । निः कलंक रजोमुक्तं वेम्यहं योगयोगतः ।।१६८।। वपूविण्मयमा
बद्धमजिनरस्थिपंजरं । पूतिगंधं विमांसाढ्यं समस्ति मम पापदं ॥१६६॥ अनयोः सर्गमावेद्य यद्धितं तद्धितेच्छुभिः । ध्येयं ध्येयं विशुद्धात्म कोविदैश्चिल्लयंगतः ॥२००।। परीषहे समापन्ने मनोनास्यविचंचलम् । अभूत्तस्य सहिष्णुत्वं परोषहजयं तपः ।।२०१॥ तादृशं कीटिकालुप्त हृदयं कुणपं यथा । सुस्थिरं वीक्ष्य चापन्नौ तस्यांते दंपती मुदा ॥२०२॥ त्रिः परीत्य प्रणम्याशु चेलिनीभक्तिरंजिता ।। ससंवेगादिसम्यक्ता वृषाभरणभूषिताः ॥२०३॥ उत्क्षिप्य स्वभुजाभ्यां च मुनेः कंठाद्भ जंगमं ।। खंडपुंजविधानेन दूरीचक्रे पिपीलिकाः ।।२०४॥ प्रक्षाल्य मुनिसद्गात्रं निर्मलं कोष्णवारिणा। सुश्री खंडैविलिप्याशु तत्तापहतये सिका ॥२०॥ ततः समय॑ तत्पादमाक्षिपं सविधौ यतेः । आसतुस्तौ परं प्रीतौ सुस्मयापन्नमानसौ ॥२०६॥ सूर्योदये विषण्णं तं पूर्णयोगं च चवितम् । पिपीलिकाभिरत्यंतं राज्ञी रंजितमानसा ॥२०७॥
यह नियम है मुनियों पर जब उपसर्ग आता है तब वे अनित्य आदि बारह भावनाओं का चिंतन करने लग जाते हैं। ज्योंही मुनि यशोधर के गले में सर्प पड़ा वे इस प्रकार भावना भाने लगे राजा ने जो मेरे गले में सर्प डाला है सो मेरा बड़ा उपकार किया है। क्योंकि जो मनि अपनी आत्मा से समस्त कर्मों का नाश करना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे अवश्य कर्मों की उदीरणा के लिए परीषह सहे। यह राजा मेरा बड़ा उपकारी है। इसने अपने-आप परीषहों की सामग्री मेरे लिए एकत्रित कर दी है। यह देह मुझसे सर्वथा भिन्न है। कर्म से उत्पन्न हुआ है। और मेरी आत्मा समस्त कर्मों से रहित पवित्र है, चैतन्यस्वरूप है। शरीर में क्लेश होने पर भी मेरी आत्मा क्लेशित नहीं बन सकती। यद्यपि यह शरीर अनित्य है, महा अपवित्र है, मल-मत्र का घर है, घृणित है,
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