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________________ श्रेणिक पुराणम् १९३ तथापि न मालम विद्वान लोग क्यों इसे अच्छा समझते हैं ? इन-फुलेल आदि सुगंधित पदार्थों से क्यों इसका पोषण करते हैं। यह बात बराबर देखने में आती है कि जब आत्माराम इस शरीर से बिदा होता है उस समय कोस-दो कोस की तो बात ही क्या है पगभर भी यह शरीर उसके साथ नहीं जाता। इसलिए यह शरीर मेरा है ऐसा विश्वास सर्वथा निर्मूल है। मनुष्य जो यह कहते हैं कि शरीर में सुख-दुःख होने पर आत्मा सुखी-दुःखी होती है यह बात भी सर्वथा नियुक्तिक है क्योंकि जिस प्रकार झोंपड़े में अग्नि लगने पर झोंपड़ा ही जलता है तदन्तर्गत आकाश नहीं जलता उसी प्रकार शारीरिक सुख-दुःख मेरी आत्मा को सुखी-दुःखी नहीं बना सकते। मैं ध्यान-बल से आत्मा को चैतन्य स्वरूप शुद्ध निष्कलंक समझता हूँ। और मेरी दृष्टि में शरीर जड़, अशुद्ध चर्मावृत, मल-मूत्र आदि का घर, अनेक क्लेश देनेवाला है। मुझे कदापि इसे अपनाना नहीं चाहिए। तथा इस प्रकार भावनाओं का चिंतन करते हुए मुनिराज, जैसे उन्हें राजा छोड़ गया था वैसे ही खड़े रहे । और गंभीरतापूर्वक परीषह सहते रहे। सत्य-सिद्धांत पर आरूढ़ रहने पर मनुष्य कहाँ तक दास नहीं बनते हैं। जिस समय राजा रानी ने मुनि को ज्यों-का-त्यों देखा अपार आनंद से उनका शरीर रोमांचित हो गया। उन दोनों ने शीघ्र ही समान भाव से मुनिराज को नमस्कार किया एवं उनकी प्रदक्षिणा की। मुनि के दुःख से दुःखित किंतु उनके ध्यान की अचलता से हर्षित चित्त एवं प्रशम, संवेग आदि सम्यक्त्व गुणों से भूषित, रानी चेलना ने शीघ्र ही मुनि के गले से सर्प निकाला। पास में कुछ चीनी फैलाकर शीघ्र ही चींटियाँ दूर की। चींटियों ने मुनिराज का शरीर खोखला कर दिया था इसलिए रानी ने एक मुलायम वस्त्र से अवशिष्ट चींटियों को भी दूर कर उसे गरम पानी से धोया। और संताप की निवृत्ति के लिए उस पर शीतल चन्दन आदि का लेप कर दिया एवं मुनिराज को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर मुनिराज की ध्यानमुद्रा पर आश्चर्य करनेवाले, उनके दर्शन से अतिशय संतुष्ट, वे दोनों दंपती आनंदपूर्वक उनके सामने भूमि पर बैठ गये ॥१९२-२०७॥ ततः प्रदक्षिणीकृत्य पूजयित्वा पदाम्बुजं । आरेभे तद्गुणालीढं स्तवं सा पापशांतये ॥२०८॥ नाथाद्य मित्रशत्रूणां समत्वं त्वयि वर्त्तते । नागपुष्पस्रजां साम्य मशर्मतरदायिनां ॥२०६॥ संसारजलधेः पारं नीतोऽसि स्वयमेव च। अन्येषां प्रापणे दक्षस्त्वमेव ' काष्टयानवत् ॥२१०॥ त्वत्तः प्राप्नोति जीवानां निकायः सातमुल्वणम् । एधसे शर्मणा स्वामिन्नात्मजेन भवापह ।।२११।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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