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श्रेणिक पुराणम्
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प्रभो! आप विश्वास रखें जो गुरु परम ज्ञानी, परम ध्यानी, दृढ़ वैरागी होंगे, वे ही मेरे गुरु होंगे। किंतु इनसे विपरीत परिषहों से भय करनेवाले, अति परिग्रही, व्रत-तप आदि से शून्य, मधु, मांसमदिरा के लोलुपी एवं महापापी जो गुरु हैं सो मेरे गुरु नहीं। जीवन-सर्वस्व ! ऐसे गुरु आपके ही हैं। न जाने जो परम परीक्षक एवं अपनी के हितैषी हैं, वे कैसे इन गुरुओं को मानते हैं ? उनको पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं ? रानी के ऐसे युक्तिपूर्ण वचन सुन राजा का चित्त मारे भय के काँप गया। उस समय और कुछ न कहकर उनके मुख से ये ही शब्द निकले
प्रिये ! इस समय जो आपने कहा है, बिलकुल सत्य कहा है। अब विशेष कहने की आवश्यकता नहीं। अब एक काम करो, जहाँ पर मुनिराज विराजमान हैं वहाँ पर हम दोनों शीघ्र चलें और उन्हें जाकर देखें।
रानी तो जाने को तैयार ही थी, उसने उसी समय चलना स्वीकार किया। एवं इधर रानी तो अपनी तैयारी करने लगी। उधर महाराज ने मुनि दर्शनार्थ शीघ्र ही नगर में ढोंढी पिटवा दी। तथा जिस समय रानी पीनस में बैठी वन की ओर चलने लगी। महाराज भी एक विशाल सेना के साथ उसके पीछे घोड़े पर सवार हो चल दिये। और रात में अनेक हाथी-घोड़ों से वेष्टित वे दोनों दंपती पलस्यायत में मुनिराज के पास जा दाखिल हो गये ।।१६३-१९१।।
उपसर्गे च यो धीमान् ध्यायतीति मानसे । उपकारपरो मेऽद्य नृपोऽभुद्वापरो नहि ॥१६२।। उदीरणया सोढव्या शीताद्याः सुपरीषहाः । यतिभिस्ते स्वयं सर्वे कृताभूपेन किं रिपुः ॥१६३॥ मत्तो देहादिकं भिन्नं कर्मकारणसंभवं । तदुःखे मे कथं दुःखं चिद्रूपस्य परात्मनः ॥१६४॥ अहो ! इदं वपुनित्यं बीभत्सं भीतिदायकं । सर्गनाशि कथं धत्ते मतिमांस्तत्र सन्मतिं ॥१६५।।
पात्यंगं पदमेकं च सार्द्धनति परत्र तत् । भूषणं पोषणं तस्य को दधाति शुभेच्छया ॥१६६।। व्याधिदेहं तुदत्येव न मां मूर्त चिदात्मकम् ।। शुद्धं पथाकुटीरं च ज्वलते न नभोऽग्निकः ।।१६७॥
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