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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
ज्योंही मुनि यशोधर को यह बात मालूम हुई कि मेरे गले में सर्प डाल दिया है तो उन्होंने अपनी ध्यानमुद्रा और भी अधिक चढ़ा दी। और महाराज श्रेणिक वहाँ से चल दिये । एवं जो-जो काम उन्होंने वहाँ मिये थे, अपने गुरुओं से आकर सब कह सुनाये।
श्रेणिक द्वारा एक दिगम्बर गुरु का ऐसा अपमान सुन बौद्ध गुरुओं को अति प्रसन्नता हुई। वे बार-बार श्रेणिक की प्रशंसा करने लगे। किंतु साधु होकर उनका यह कृत्य उत्तम नहीं था। साधु का धर्म मानापमान, सुख-दुःख में समान भाव रखना है। अथवा ठीक ही था, यदि वे साधु होते तो वे साधुओं के धर्म जानते। किंतु वहाँ तो वेष साधु का था। आत्मा के साथ साधुत्व का कोई संबंध न था।
इस प्रकार तीन दिन तक तो महाराज इधर-उधर लापता रहे। चौथे दिन वे रानी चेलना के राजमंदिर में गये। जो-कुछ दुष्कृत्य वे मुनि के साथ कर आये थे, सारा रानी से कह सुनाया और हँसने लगे।
___महाराज द्वारा अपने गुरु का यह अपमान सुन रानी चेलना अवाक रह गई। मुनि पर घोर उपसर्ग जान उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। वह कहने लगी-हाय, बड़ा अनर्थ हो गया। राजन् ! आपने अपनी आत्मा को दुर्गति का पात्र बना लिया। अरे मेरा जन्म सर्वथा निष्फल है। मेरा राजमंदिर में भोग भोगना महापाप है। हाय मेरा इस कुमार्गी पति के साथ क्योंकर संबंध हो गया। युवती होने पर मैं मर क्यों नहीं गई । अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कहाँ रहूँ, हाय यह मेरा प्राणपखेरू क्यों नहीं जल्दी बिदा होता। प्रभो, मैं बड़ी अभागिनी हूँ। मेरा अब कैसे भला होगा? छोटे गाँव, वन, पर्वतों में रहना अच्छा किंतु जिन धर्म रहित अति वैभवयुक्त भी इस राजमंदिर में रहना ठीक नहीं। हाय दुर्दैव ! तूने मुझे अभागिनी पर ही अपना अधिकार जमाया। रानी चेलना का रुदन सुन महाराज के चेहरे से प्रसन्नता कोसों दूर उड़ गई। उस समय उनसे और कुछ न बन सका । वे इस रीति से रानी को समझाने लगे
प्रिये ! तू इस बात के लिए ज़रा भी शोक न कर, वह मुनि गले से सर्प फेंक कभी का वहाँ से भाग गया होगा। मृत सर्प को गले से निकालना कोई कठिन नहीं। महाराज के ये वचन सुन रानी ने कहा
नाथ ! आपका यह कथन भ्रम मात्र है। मेरा विश्वास है, यदि वे मेरे सच्चे गुरु हैं तो कदापि उन्होंने अपने गले से सर्प न निकाला होगा। कृपानाथ ! अचल मेरु पर्वत भी कदाचित् चलायमान हो जाय । मर्यादा का त्यागी भी समुद्र में अपनी मर्यादा छोड़ दे। किंतु जब दिगम्बर मुनि ध्यानकतान हो जाते हैं। उस समय उन पर घोरतम भी उपसर्ग क्यों न आ जाय, कदापि अपने ध्यान से विचलित नहीं होते।
प्राणनाथ ! क्षमा भूषण से भूषित दिगम्बर मुनि तो अचल पृथ्वी के समान होते हैं और समुद्र के समान गंभीर, वायु के समान निष्परिग्रह, अग्नि के समान कर्म-भस्म करनेवाले, आकाश के समान निर्लेप, जल के समान स्वच्छ चित्त के धारक एवं मेघ के समान परोपकारी होते हैं।
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