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________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् के अनुसार पूर्वाचार्यों की कृति को देखकर हमको भी वाक्यों की रचना में कभी भी विषाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि शक्ति के न होने पर ईर्ष्या-द्वेष करना बिना प्रयोजन का है। जिस प्रकार सिंह ही अपने शब्द को कर सकता है परन्तु उस शब्द को मेंढक नहीं कर सकता अर्थात् सिंह के शब्द करने में मेंढक असमर्थ है, उसी प्रकार यद्यपि पूर्वाचार्यों ने ग्रन्थों की रचना की है तो भी मैं वैसे ग्रन्थों की रचना करने में असमर्थ ही हूँ॥३१॥ जिस प्रकार अत्यन्त छोटे देह का धारक कुंथु जीव भी देहधारी कहा जाता है और पर्वत के समान देह का धारण करनेवाला हाथी भी देहधारी कहा जाता है उसी प्रकार पुराण न्याय-काव्य आदि शास्त्रों को भलीभाँति जाननेवाला भी कवि कहा जाता है। और अल्पशास्त्रों का जाननेवाला मैं भी कवि कहा गया हूँ। मूक पुरुष भले ही उत्तम न बोलता हो तो भी वह बोलने की इच्छा रखता है, उसी प्रकार यद्यपि मैं समस्त शास्त्रों के ज्ञान से रहित हूँ तो भी मैं इस चरित्र के वर्णन करने में प्रयत्न करता हूँ॥३४॥ जिस प्रकार चरित्र के सुनने से पुण्य की प्राप्ति होती है उसी प्रकार चरित्र के कथन करने से भी पुण्य की प्राप्ति होती है। इस प्रकार भली भाँति विचारकर मैंने इस श्रेणिक चरित्र का कथन करना प्रारम्भ किया है ॥३५॥ अथवा चरित्रों के सुनने से भव्य जीवों को संसार में तीर्थंकर इन्द्र चक्रवर्ती आदि पदों की प्राप्ति होती है यह भले प्रकार समझकर और तीर्थंकर आदि के गुणों का लोलुपी होकर, दृढ़ श्रद्धानी हो, मैं शुभचन्द्राचार्य सारभूत उत्कृष्ट, और पवित्र श्रेणिक चरित्र को कहता हूँ । परन्तु जिस प्रकार अधिक विस्तारनेवाले कच्चे धान्यों की अपेक्षा पका हुआ थोड़ा-सा धान्य भी उत्तम होता है उसी प्रकार विस्तृत चरित्र की अपेक्षा संक्षिप्त चरित्र उत्तम तथा मनुष्यों के मन को हरण करनेवाला होता है । इसलिए मैं इस श्रेणिक चरित्र का संक्षिप्त रीति से ही वर्णन करता हूँ ॥३६-३७-३८॥ अथ त्रैलोक्यमध्यस्थो जम्बू द्वीपो मनोहरः । बभाति व्रत संस्थानो लक्षयोजन विस्तृतः ।। ३६ ।। क्षेत्रपत्रं महोत्तुंगं लसद्ज्योतिष्ककेसरम् । मेरू कर्णिकमाभात्यहि मृणाल मनोहरम् ॥ ४० ॥ दीप पद्म जनानेकषद्यदाकुल मण्डितम् । जनाल्हादकरं रम्यं क्षारोदक जलाशये ॥४१ ।। नानामहिधरेः सेव्यः कुलीनः शुभसंस्थितिः । रामालीनो गृहावेशी द्वीपो राजेव राजते ॥ ४२ ॥ नदी जड़संसेव्यो निम्नगास्त्री समाश्रितः । द्विज राजाश्रितश्चित्रमुत्तमत्वं च यः श्रितः ॥ ४३ ॥ क्षेत्रमही धरै रम्यो गम्यः पुण्यवतांच यः । जलाशयमहाकुण्ड: विभातिभुवनत्रये ॥ ४४॥ यद्वत्तत्वंसमालोक्य हीयमाणो भ्रमत्यलम् । चन्द्रक्षीणत्वमापन्नो व्योम्निमन्ये मनोहरः ॥ ४५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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