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चतुर्थः सर्गः इंद्रदत्तस्ततो वेणा तड़ागं प्राप्य पत्तनम् । जहर्ष सौधमालाढ्यं कामिनीमुखचंद्रितम् ।। १ ॥ यत्कामिनीमुखं वीक्ष्य संभिन्नक्षणदातमः । ह्रिया भ्रमति चंद्रोऽयं तदाप्रभृति खे निशि ॥ २ ॥ यत्रात्याश्च जनाः सर्वे पुण्यकर्मरता भृशम् ।। दानिनो भोगिनो धीरा जिन पूजापरायणाः ॥ ३ ॥ ततो दृष्ट्वा बभाणैष पुरं भो राज संभव ।
किं करिष्यसि मां ब्रूहि कुत्र स्यास्यति निश्चितं ॥ ४ ॥ अनंतर जिस समय सेठी इन्द्रदत्त वेणपद्मनगर के तालाब के पास पहुंचे तो वहीं से उन्होंने वेणपदमनगर को देखा। तथा जिस वेणपद्मनगर की स्त्रियों के मुख चन्द्रमा मनोहर, कामी जनों के मन तृप्त करनेवाले थे, उनको मनोहरता के सामने चन्द्रमा अपने को कुछ भी मनोहर नहीं मानता था और लज्जित हो रात-दिन जहाँ-तहाँ घूमता फिरता था। तथा जिस नगर के निवासी मनुष्य सदा पुण्य कर्म में तत्पर, दानी, भोगी, धीर-वीर, और श्री जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा के भलीभाँति पालन करनेवाले थे, ऐसे उस सर्वोत्तम नगर की शोभा देखकर वे अति प्रसन्न हुए। कुमार श्रेणिक से कहने लगे हे कुमार ! इस नगर में आप क्या करेंगे? कहाँ पर निवास करेंगे? मुझे कहें ॥१४॥
स्थास्यामि वणिजां नाथ तड़ागे पद्मराजिते । त्वं याहि पत्तने गेहे स्वकीये रंगराजिते ॥ ५ ॥ मदाज्ञया विना राजन्न गंतव्यं त्वया क्वचित् ।
इति तं तत्र संस्थाप्य विशेष नगरं निजं ॥ ६ ॥ इन्द्रदत्त की यह बात सुनकर कुमार श्रेणिक ने उत्तर दिया कि हे वणिक स्वामी इन्द्रदत्त ! मैं भांति-भांति के कमलों से शोभित इसी तालाब के किनारे रहूँगा आप अपने मनोहरपुर में जाकर निवास करें॥५॥ कुमार के मुख से ऐसे उत्तम वचन सुनकर सेठी इन्द्रदत्त ने फिर कहा कि हे राजकुमार! यदि आप यहाँ रहना चाहते हैं तो मेरा एक निवेदन है, वह यही है कि जब तक मेरी आज्ञा न होवे आप इस तालाब को छोड़कर कहीं न जायें ॥५-६।।
क्रमान्निजगृहं प्रापदिंद्रदत्तो वणिग्धरः । प्रफुल्लसर्वनेत्रांगो विकसन्मुखपंकजः ॥ ७ ॥
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