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श्रेणिक पुराणम्
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तोषिक दे सन्तुष्ट किया एवं अपने प्रिय पुत्र को बुलाकर उसे फल खाने की आज्ञा दे दी। आम्रफल विप-बूंद से विषमय हो चुका था इसलिये ज्यों ही कुमार ने फल खाया खाते ही उसके शरीर में विष फैल गया। बात की बात में वह मूर्छित हो जमीन पर गिर गया और उसकी चेतना एक ओर किनारा कर गई। अपने इकलौते और प्रिय पुत्र वसुदत्त की यह दशा देख राजा विश्वसेन बेहोश हो गये उन्होंने वह सब कार्य आम फल का जान तत्काल उसे कटवाने की आज्ञा दे दी एवं पुत्र की रक्षार्थ शीघ्र ही राज वैद्य को बुलाया।
राजवैद्य ने कुमार की नाड़ी देखी। नाड़ी में उसे विष-विकार जान पड़ा इसलिए उसने शीघ्र ही उसो आम्र फल का एक फल मँगाया और कुमार को खिलाकर तत्काल निविष कर दिया। राजा विश्वसेन ने जब आम्र फल का यह माहात्म्य देखा तो उन्हें बड़ा शोक हुआ वे अपने उस अविचारित कार्य के लिए बार-बार पश्चात्ताप (पछताना) करने लगे। और अपनी मूर्खता के लिए सहस्र बार धिक्कार देने लगे।
हे जिनदत्त ! यह तुम निश्चय समझो जो हतबुद्धि मनुष्य बिना विचारे काम करते हैं उन्हें बाद में पछताना होता है। बिना समझे काम करने वाले मनुष्य निंदाभाजन बन जाते हैं। अब तुम्हीं इस बात को कहो राजा ने जो वह आम बिना विचारे कटवा दिया था वह काम क्या उसका योग्य था? मुझसे यह कथा सुन जिनदत्त ने कहा
नाथ ! राजा का वह कार्य सर्वथा बेसमझ था। मैं आपको एक दूसरी कथा सुनाता हूँ आप ध्यानपूर्वक सुनें ।।१६६-२१७॥
शृणु स्वामिन्कथामेकां त्वत्तोषशुभदायिनी। जाह्नवी तटसंवासी विश्वभूत्याख्यतापसः ॥२१८॥ एकदा जाह्नवीपूरे वहतं लघुदंतिनम् । कृपार्द्रमनसा वीक्ष्य समाकार्षीच्च तापसः ॥२१६॥ फलादि निद्यसंस्तं चापोषयत्शुभलक्षणं । ववृधेऽनेकपः कालाच्चारुचिन्हः सुदंतभाक् ॥२२०॥ कदाचित्तं समालोक्य चारुचिन्हं समग्रहीत् । इच्छास्वमंदिरं भूभृत्पुपोषांकुशमादिशत् ॥२२१॥ सोऽकुशोत्थं व्रणं तावदसहिष्णुर्भयातुरः । पलाय्य तापसा वासं तापसैर्वारितो गतः ॥२२२।। वारयंस्तापसो यावद्गजोऽपि तममीमरत् । नाथ तत्तस्य युक्तं वा न वा भवति मां वद ॥२२३॥
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