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________________ श्रणिक पुराणम् ४३ कूमा हे अत्यंत बुद्धिमान महाराज आपका सुयोग्य पुत्र कुमार श्रेणिक है उसी को बेधड़क राज्य दे दीजिए। मंत्री की इस बात को सुनकर महाराज उपश्रेणिक ने कहा-हे मंत्रिन्, जिस समय मेरे शत्रु द्वारा भेजे हुए घोड़े ने मुझे वन में गड्ढ़े में पटक दिया था उस समय यमदंड नामक भिल्ल राजा ने वन में मेरी सेवा की थी तथा उसकी पुत्री तिलकवती ने अपनी अतुलनीय सेवा से एक तरह मुझे पुनः जीवित किया था। अकस्मात उसी पुत्री के साथ मेरा विवाह हो गया। विवाह के समय तिलकवती के पिता ने यह मुझसे कौल करा लिया था कि यदि आप इस पुत्री के साथ अपना विवाह करना चाहते हैं तो मुझे यह वचन दे दीजिए कि इससे जो पुत्र होगा वही राज्य का अधिकारी होगा, नहीं तो मैं अपनी इस पुत्री का विवाह आपके साथ नहीं करूंगा। मैंने उस तिलकवती के सौंदर्य एवं गुणों पर मुग्ध होकर उसके पिता को उस प्रकार का वचन दे दिया था कि इसी के पुत्र को राज्य दूंगा। किन्तु मैंने राज्य किसको देना चाहिए, यह बात जिस समय ज्योतिषी से पूछी तो उसने अपनी ज्योतिष विद्या से यही कहा कि इस महाराज्य का अधिकारी णिक ही है। अब बताइये, ऐसी दशा में मैं क्या करूँ और राज्य किसको दं। यदि मैं चलाती पुत्र को राज्य न देकर कुमार श्रेणिक को राज्य प्रदान करूँ और अपने वचन का खयाल न रखू तो संसार में मेरा जीवन सर्वथा निष्फल है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि यदि मैं अपने वचन का पालन न कर सकूँगा तो मेरा पहले कमाया हुआ सब पुण्य भी बिना प्रयोजन का है क्योंकि मल-मूत्र आदि सात धातुओं से बना हुआ यह शरीर पुण्य रहित निस्सार है अर्थात किसी काम का नहीं। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि चंचल जीवन की अपेक्षा इस शरीर में सत्य वचन ही सार है, अर्थात् जो कहकर वचन का पालन करता है वही मनुष्य आर्य है, और उत्तम है किन्तु जो अपने वचन को पालन नहीं करता है वह उत्तम नहीं क्योंकि जिस मनुष्य ने संसार में अपने वचन की रक्षा नहीं की उसने उपार्जन किये हुए पुण्य का सर्वथा नाश कर दिया। और यह बात भी है कि संसार में शरीर सर्वथा विनाशीक है जीवन बिजली के समान चंचल है और सब प्रकार को सम्पदाएँ भी पलभर में नष्ट होनेवाली हैं, यदि स्थिर है तो एक वचन ही है ऐसा सब स्वीकार करते हैं । ऐसा समझकर हे मंत्रिन् सुमते मैंने जो वचन कहा है उस वचन पर तुम्हें भलीभाँति विचार करना चाहिए जिससे कि संसार में मेरा जीवन सार्थक समझा जावे निरर्थक नहीं। इस प्रकार जब महाराज उपश्रेणिक ने कहा तब मतिसागर नामक मन्त्री बोला कि हे महाराज, इस थोड़ी-सी बात के विचारने में आप क्यों चिन्ता करते हैं ? क्योंकि चिन्ता स्वर्ग-राज्य की लक्ष्मी को विकारयुक्त बना सकती है फिर इस थोड़ी-सी बात के लिए चिन्ता करना क्या बड़ी बात है ? मैं अभी कुमार श्रेणिक को देश से बाहर निकाले देता हूँ आप चिन्ता छोड़िए इस चिन्ता में क्या रखा है। मतिसागर मन्त्री को अपने अनुकूल इस बात को सुनकर महाराज उपश्रेणिक मन में अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उस मन्त्री से यह बात भी कहते हुए कि ।।५०-६०॥ इत्यादेशान्महामंत्री विचार्य निजमानसे । चिरंजगाम सामीप्ये श्रेणिकस्य महामनाः ।। ६१ ॥ दृष्ट्वा तं श्रेणिको धीमान् ददौ मानंमदा तदा । तौ पप्रच्छतुरन्योन्यं कुशलं स्नेहपूर्वकम् ।। ६२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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