________________
श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
इधर अपने भयंकर विघ्न की शांति हो जाने से विप्र तो नन्दिग्राम में 'सुखानुभव करने लगे। उधर राजगृह नगर में महाराज श्रेणिक की निद्रा की समाप्ति हो गई। उठते ही उनके मुँह से यही प्रश्न निकला कि नन्दिग्राम के ब्राह्मण जो बावड़ी लाये थे वह बावड़ी कहाँ है ? शीघ्र ही मेरे सामने लाओ
१०८
महाराज के वचन सुनते ही पहरेदार ने जवाब दिया- महाराजाधिराज ! नन्दिग्राम के ब्राह्मण रात को बावड़ी उठाकर लाये थे । जिस समय उन्होंने आपसे निवेदन किया था कि बावड़ी कहाँ रख दी जाय ! उस समय आपने यही जवाब दिया था कि 'जहाँ से लाये हो, वहीं ले जाकर रख दो और शीघ्र राजमंदिर से चले जाओ।' इसलिए हे कृपानाथ ! वे बावड़ी को पीछे ही लौटा ले गये ।। ८२-८३॥
निद्रायाश्चेष्टितं सर्वं नान्यस्य भुवि वर्त्तते ।
निद्रेयं महती पीड़ा प्राणिनां सातबाधिका ॥ ८४ ॥ यद्वदंति सदाचार्यास्तत्सत्यं सत्यमेव च । जेय शयनमानित्यं पुरुषैहितकांक्षिभिः ॥ ८५ ॥ निद्रांत: करणाद्देही किं न कुर्यात् शुभाशुभं । अजेयं शयनं लोके क्षुधेव न च संशयः ॥ ८६ ॥ कृत्याकृत्यं न जानाति हेयाहेयं शुभाशुभम् । पापापापं खलान्यं च निद्रादष्टो जनो भुवि ॥ ८७ ॥ घर्घराकलितः कंठो वेष्टनारक्षणं तथा । स्वेदो गमनभंगोऽत्र निद्रा च मरणायते ॥ ८८ ॥ वितर्येति चिरं राजा क्रोधोद्दीप्तो बभाण च । गजदेहतुलमानमानयध्वं
च
सत्वरम् ।। ८६ ।
पहरेदार के ये वचन सुन अत्यधिक क्रोध के कारण महाराज श्रेणिक का शरीर भभकने लगा । वे बारंबार अपने मन में ऐसा विचार करने लगे कि संसार में जैसी भयंकर चेष्टा निद्रा की है वैसी भयंकर चेष्टा किसी की नहीं । यदि जीवों के सुख पर पानी फेरनेवाली है तो यह पिशाचिनी निद्रा ही है । परमर्षियों ने जो यह कहा है कि जो मनुष्य हित के आकांक्षी हैं अपनी आत्मा का हित चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि वे इस निद्रा को अवश्य जीतें सो बहुत ही उत्तम कहा है । क्योंकि जिस समय पिशाचिनी यह निद्रा जीवों के अंतरंग में प्रविष्ट हो जाती है । उस समय बिचारे प्रांणी इसके वश हो अनेक शुभ-अशुभ कर्म संचय कर मारते हैं। और अशुभ कर्मों की कृपा से उन्हें नरकादि घोर दुःखों का सामना करना पड़ता है। वास्तव में यह निद्रा क्षुधा के समान है क्योंकि जिस प्रकार क्षुधा का जीतना कठिन है । उसी प्रकार इसी निद्रा का जीतना भी कठिन है। क्षुधा से पीड़ित मनुष्य को जिस प्रकार यह विचार नहीं रहता कौन धर्म अच्छा है कौन बुरा है । संसार में मुझे कौन वस्तु ग्रहण करने योग्य है कौन त्यागने योग्य है । उसी प्रकार
1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org