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श्रेणिक पुराणम्
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निद्रा-पीड़ित मनुष्य को भी अच्छे-बुरे एवं हेय उपादेय का विचार नहीं रहता। एवं जैसा क्षुधापीड़ित मनुष्य पाप-पुण्य की कुछ भी परवा नहीं करता। वैसी निद्रा-पीड़ित मनुष्य को भी पापपुण्य की कुछ भी परवा नहीं रहती।
तथा यह निद्रा एक प्रकार का भयंकर मरण है। क्योंकि मरते समय कफ के रुक जाने पर जैसा कि कंठ में धड़-धड़-सा होने लग जाता है। निद्रा के समय में भी उसी प्रकार धड़-धड़ शब्द होता है । मरणकाल में संसारी जीव जिस प्रकार खाट आदि पर सोता है उसी प्रकार निद्राकाल में भी बेहोशी से खाट आदि पर सोता है। मरणकाल में जैसा मनुष्य के अंग पर पसीना झमक जाता है वैसा निद्रा के समय भी अंग पर पसीना आ जाता है। एवं मरण समय में जिस प्रकार जीव जरा भी नहीं चल सकता शांत पड़ जाता है। निद्राकाल में भी उसी प्रकार जीव जरा भी नहीं चल सकता किंतु काठ की पुतली के समान बेहोश पड़ा रहता है। इसलिए यह निद्रा अति खराब है। तथा क्षणेक ऐसा विचार कर दैदीप्यमान शरीर से शोभित महाराज श्रेणिक ने फिर से सेवकों को बुलाया और उनसे कहा कि जाओ और शीघ्र ही नन्दिग्नाम के ब्राह्मणों से कहो। महाराज ने यह आज्ञा दी है कि नन्दिग्राम के विप्र एक हाथी का वजन कर शीघ्र ही मेरे पास भेज दें॥८४-८९॥
मानं न दीयते चेद्भो गंतव्यं नगराद्रुतम् । इत्यादिष्टा बभूवुस्ते गजप्रेषणपूर्वकम् ॥ १० ॥ तदुपायमजानंतो व्याकुला गतमानसाः । कुमारसन्निधिं प्रापुर्वाचाला: किं कथं किमु ॥ ११ ॥ मा विभ्यतु भवंतो वै करोम्यत्र प्रतिक्रियाम् । इत्याश्वास्य स विप्रांस्तानुद्ययौ तत्कृते पुनः ।। ६२॥ गंभीरे जलधिप्रख्ये परागपरिपूरिते । कासारे वेशयामास नावं गजसमन्वितां ।। ६३ ॥ कासारे तारयन्नावं द्विपभार विभूषिताम् । यावन्मग्ना व्यधातत्र संज्ञां विज्ञानपारगः ॥ १४ ॥ निः काश्ययानपात्रं स पूरयामास प्रस्तरैः । पुनस्तत्तारयामास तावन्मग्नं चकार सः ।। ६५ ॥ ततो निक्षिप्य पाषाणांस्तत ऊर्द्धवप्रमाणकः । प्रमीय तद्गुरुत्वं च तेनाकथि सुबुद्धितः ।। ६६ ।। ततो निरूपयामास भूपतेस्तत्प्रमाणकम् । अजेया बुद्धितो विप्रा इति शंसां चकार स ॥ १७ ॥
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