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________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् महाराज की आज्ञा पाते ही सेवक चला। और नन्दिग्राम में जाकर उसने ब्राह्मणों से, जो कुछ महाराज की आज्ञा थी, सब कह सुनाई। तथा यह भी कह सुनाया कि महाराज की इस आज्ञा का पालन जल्दी हो। नहीं तो आपको जबरन नन्दिग्राम खाली करना पड़ेगा। सेवक के मुख से महाराज की आज्ञा सुनते ही नन्दिग्राम निवासी विप्रों के मुख फीके पड़ गये। मारे भय के उनका गात्र काँपने लग गया। वे अपने मन में सोचने लगे कि बावड़ी का विघ्न टल जाने से हमने तो यह सोचा था कि हमारे दु:खों की शांति हो गई। अब यह मुसीबत फिर से कहाँ से आ टूटी? तथा कुछ देर ऐसा विचार कर वे बुद्धिशाली अभयकुमार के पास गये। और उनसे इस रीति से विनयपूर्वक कहा माननीय कुमार ! अबकी महाराज ने बड़ी कठिन अटकाई है। अबकी उन्होंने हाथी का वजन माँगा है भला हाथी का वजन कसे, किस रीति से हो सकता है ? मालूम होता है महाराज अब हमें छोड़ेंगे नहीं। ब्राह्मणों के ऐसे दीनतापूर्वक वचन सुन कुमार ने उत्तर दिया आप इस जरा-सी बात के लिए क्यों इतने घबराते हैं ? मैं अभी इसका प्रतिकार करता हूँ। तथा ब्राह्मणों को इस प्रकार आश्वासन दे वे शीघ्र ही तालाब के किनारे गये। तालाब के पास जाकर उन्होंने एक नौका मंगाई। और ब्राह्मणों द्वारा एक हाथी मंगवाकर उस नाव में हाथी खड़ा कर दिया। हाथी के वजन से जितना नाव का हिस्सा डूब गया उस हिस्से पर कुमार ने एक लकीर खींच दी। एवं हाथी को नाव से बाहर कर उसमें उतने ही पत्थर भरवा दिये। जिस समय पत्थर और हाथी का वजन बराबर हो गया तो कुमार ने पत्थरों को भी नाव से निकलवा लिया। तथा उन पत्थरों के बराबर दूसरे बड़े-बड़े पत्थर कर महाराज श्रेणिक की सेवा में भिजवा दिये। और नन्दिग्राम के ब्राह्मणों की ओर से यह निवेदन कर दिया कि कृपानाथ ! आपने जो हाथी का वजन माँगा था सो यह लोजिए॥६०-६७॥ अन्यदा खादिरं काष्टं हस्तमात्रं विवल्कलं । प्रेषयामास भूपालो विप्रान्प्रतिजनैः सह ।। ६८ ॥ अस्याधस्तन भागः क उपरित्योऽयमेव कः । द्वावंशी कथनीयौ भो इति निर्देशपूर्वकम् ।। ६६ ।। जिस समय महाराज श्रेणिक ने हाथी के वजन के पत्थर देखे तो उनको बड़ा आश्चर्य हआ। वे अपने मन में विचारने लगे कि नन्दिग्राम के ब्राह्मण अधिक बुद्धिमान हैं। उनका चातुर्य एवं पांडित्य ऊँचे दर्जे पर चढ़ा हुआ है। ये किसी रीति से भी जीते नहीं जा सकते। तथा क्षणेक अपने मन में ऐसा भली प्रकार विचार कर महाराज ने फिर सेवकों को बुलाया। और एक हाथ प्रमाण की एक निखोल खैर की लकड़ी उन्हें दे यह कहा कि जाओ, इस लकड़ी को नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को दे आओ। उनसे कहना महाराज ने यह लकड़ी भेजी है। कौन-सा तो इसका निचला भाग है और कौन-सा इसका ऊपर का भाग है ? यह परीक्षा कर शीघ्र ही महाराज के पास भेज दो। नहीं तो तुम्हें नन्दिग्राम से निकाल दिया जायगा। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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