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श्रेणिक पुराणम्
महाराज की आज्ञा पाते ही दूत राजगृह नगर से चला और नन्दिग्राम के ब्राह्मणों को लकड़ी देकर उसने कहा कि राजगृह के स्वामी महाराज श्रेणिक ने यह लकड़ो भेजी है। इसका कौनसा तो अगला भाग है और कौनसा पिछला भाग है? शीघ्र ही परीक्षा कर भेज दो। यदि नहीं बता सको तो नन्दिग्राम छोड़कर चले जाओ!।६८-६६॥
इति संप्राप्य संदेशं शक्रागम्यं नरैः किमु । गम्यं विप्राबभूवुस्ते सचिताः कल्मषाननाः ॥१०॥ कुमारशरणं श्रेयं मनीपाश्रमकारणम् । इति संचित्य जग्मुस्ते सविधिं तस्य बुद्धये ॥१०१।। मत्वाखिलं ततो वृत्तमभयो वचनं जगौ । न भेतव्यं भवद्भिश्च करोम्यत्र प्रतिक्रियां ।।१०२।। इत्युदीर्य समाश्वास्य समादायेध्मसत्करे । जगाम वाडवैः सत्रं परीक्षाय सरस्तटे ।।१०३॥ मुमोच सलिले काष्टं वहमाने चचाल तत् । मूलभागं पुरस्कृत्याभेद्यं बुद्धयादिवजितैः ॥१०४॥ तौ भागौ स परिज्ञाय कथयामास भूपतेः । वाड़वैः स्तूयमानश्च मन्यमानस्ततः शुभं ॥१०॥
दूत के मुख से जब महाराज का यह संदेशा सुनने में आया तो नन्दिग्राम के ब्राह्मणों के मस्तक घूमने लगे। वे सोचने लगे यह मुसीबत तो सबसे कठिन आकर टूटी। इस लकड़ी में यह बताना बुद्धि के बाह्य है कि कौनसा भाग इसका पिछला है और कौनसा अगला है ? इसका उत्तर जाना महाराज के पास कठिन है। अब हम किसी कदर नन्दिग्राम में नहीं रह सकते। तथा क्षणेक
कल्प-विकल्प कर अति व्याकुल हो, वे कुमार के पास गये। महाराज का सारा संदेशा कुमार को कह सुनाया और यह खैर की लकड़ी भी उनके सामने रख दी।
ब्राह्मणों को म्लान चित्त देख और उस खैर की लकड़ी को निहार कुमार ने उत्तर दिया आप महाराज की इस आज्ञा से जरा भी न डरें। मैं अभी इसका प्रतीकार करता हूँ। तथा सब ब्राह्मणों को इस प्रकार दिलासा देकर कुमार किसी तालाब के किनारे गये। तालाब में कुमार ने लकड़ी डाल दी। जिस समय वह लकड़ी अपने मूल भाग को आगे कर बहने लगी। शीघ्र ही उन्होंने उसका पीछे-आगे का भाग समझ लिया। एवं भली प्रकार परीक्षा कर किसी ब्राह्मण के हाथ उसे महाराज श्रेणिक की सेवा में भेज दिया। लकड़ी को ले ब्राह्मण राजगृह नगर गया।
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