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श्रेणिक पुराणम्
बड़े भारी ऊँचे परकोटे को धारण करनेवाला, सुवर्णमय और नाना प्रकार के रत्नों से शोभित, यह मेरु, निराधार स्वर्ग के टिकने के लिए मानो एक ऊँचा खम्भा ही है ऐसा जान पड़ता है॥५१॥ यह मेरु पर्वत तीनों लोक में अनादिनिधन, अकृत्रिम, स्वभाव से ही और अनेक पर्वतों का स्वामी अपने-आप ही सुशोभित है ।।५२।।
यह पर्वत अत्युत्तम शोभा को धारण करनेवाले जम्बू द्वीप के मध्य भाग में अनुपम सुख मोक्ष को जाने की इच्छा करनेवाले भव्य जीवों को मोक्ष के मार्ग को दिखाता हुआ, और जिनेन्द्र भगवान के गन्धोदक से पवित्र हुआ, एक महान तीर्थपने को प्राप्त हुआ है। चारण ऋद्धि के धारण करनेवाले मुनियों से सदा सेवनीय है, समस्त पर्वतों का राजा है। श्रेष्ठ कल्पवृक्षों के फलों से स्वर्गलोक को भी जीतनेवाले इस मेरु पर्वत पर स्वर्ग को छोड़कर इन्द्र भी अपनी इन्द्राणियों के साथ क्रीड़ा करने को आते हैं। यह मेरु पर्वत अधिक ऊँचा होने के कारण अत्युच्च कहा गया है, और पृथ्वी का धारण करनेवाला होने के कारण धराधीश, अर्थात् पृथ्वी का स्वामी कहा गया है ॥५३-५६॥
__इस मेरु पर्वत के ऊपर विराजमान चैत्यालयों के और स्तुति करने योग्य परमात्मा के ध्यान करनेवाले योगीन्द्रों के स्मरण से मनुष्यों के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ।।५७। इस मेरु पर्वत के माहात्म्य का हम कहाँ तक वर्णन करें इस मेरु पर्वत के माहात्म्य का विस्तार बड़े-बड़े करोड़ों ग्रन्थों में भले प्रकार वर्णन किया गया है ।।५८॥
ततो दक्षिणदिग्भागे प्रसस्यं सस्यमुत्तमम् । भारतं भारतीपूर्ण समस्ति सुखसंश्रितम् ।। ५६ ।। चापाकारं च यद्भाति गंगासिन्धु शराश्रितम् । क्षारोदधि नीरेणैव ताड़ितं क्षार हानये ॥ ६० ॥ यन्मध्ये रूप्यनामायं शिखर्यां सिन्धु विस्तृतः । श्रेणीद्वय समाकीर्णः खचरैः कृतसंस्थितिः ।। ६१ ॥ गंगा सिन्धु द्विकेनैव विजयार्द्धा चलेन च । षट्खण्डतां समानीतं द्योतयेच्छुमालयम् ।। ६२ ।। तत्रार्यखण्डमाभाति दक्षिणे भरते परे । त्रिखण्डषंडसंकीर्णे पूर्णे पुण्यजनेः सदा ॥ ६३ ।। षट्काल चक्रसंतानं वर्तते यत्र भाषिनि । शर्माशर्म समाकीर्ण पुण्य पापकलावहम् ॥ ६४ ॥ प्रथमो वर्तते कालः सुषमाद्विक संज्ञकः । कायाहारादिभिज्ञेयो यत्र देवकुरुपमः ॥ ६५ ।।
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