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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
अतः कुमार का यह प्रश्न भी उसकी चतुरता को जाहिर करता है। तथा मरे मनुष्य को देखकर जो कुमार ने यह प्रश्न किया था कि “यह मरा हुआ मनुष्य आज का मरा हुआ अथवा पहले का मरा हुआ है?" यह प्रश्न भी उसका बड़ी चतुरता परिपूर्ण था। क्योंकि हे पूज्य पिता! जो मनुष्य धर्मात्मा, दयावान, ज्ञानवान, विनय से पात्रों को दान देनेवाला एवं समस्त जगत में यशस्वी होता है और वह मर जाता है उसको तो हाल का मरा हुआ कहते हैं। और इससे भिन्न जो मनुष्य दानरहित कामी-पापी होता है उसको संसार में पहले से ही मरा हुआ कहते हैं। कुमार का यह जो प्रश्न था कि “यह मरा हुआ मनुष्य हाल का मरा हुआ है अथवा पहले का?" यह प्रश्न कुमार को अत्यंत बुद्धिमान एवं चतुर बतलाता है तथा हे पिता! कुमार ने धान्य परिपूर्ण खेत को देखकर आपसे जो यह पूछा था कि इस क्षेत्र के स्वामी ने इस क्षेत्र के धान्य का उपभोग कर लिया है अथवा करेगा? वह प्रश्न भी कुमार का बड़ी बुद्धिमानी का था क्योंकि कर्ज लेकर जो खेत बोया जाता है। उसके धान्य का तो पहले ही उपभोग कर लिया जाता है। इसलिए वह भुक्त कहा जाता है। और जो खेत बिना कर्ज के बोया जाता है उस खेत के धान्य को उस खेत का स्वामी भोगेगा ऐसा कहा जाता है। कुमार के प्रश्न का भी यही आशय था कि यह खेत कर्ज लेकर बोया गया है अथवा बिना कर्ज के ?
इसलिए इस प्रश्न से भी कुमार की बुद्धिमानी वचनागोचर जान पड़ती है। तथा हे तात! कुमार श्रेणिक ने जो यह प्रश्न किया था कि हे मातुल! इस बेरी के वृक्ष के ऊपर कितने काँटे हैं? सो उसका आशय यह है कि काँटे दो प्रकार के होते हैं एक सीधे दूसरे टेढ़े। उसी प्रकार दुर्जनों के भी वचन होते हैं इसलिए यह प्रश्न भी कुमार श्रेणिक का सर्वथा सार्थक ही था इसलिए उक्त प्रश्नों से कुमार श्रेणिक अत्यंत निपुण, विद्वानों के मनों को हरण करनेवाला, समस्त कलाओं में प्रवीण और अनेक प्रकार के शास्त्रों में चतुर हैं, ऐसा समझना चाहिए। हे तात! आप धैर्य रखें कुमार श्रेणिक की बुद्धि की परीक्षा में और भी कर लेती हूँ किन्तु कृपाकर आप मुझे यह बतावें अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम विचारों से परिपूर्ण, सर्वोत्तम गुणों के मन्दिर, वह कुमार ठहरा कहाँ है? ॥२८-४४॥
मत्वा स्थिति कुमारस्य निपुणादिमती सखीं। पराभिप्रायसंवेत्री साजगौ निपुणां प्रति ॥ ४५ ।। वयस्ये याहि यत्रास्ते हेदीर्घनखितत्र सः । आकारणार्थमानंदान्मा विलंबय मत्सखि ॥ ४६ ॥ लब्धानुज्ञा वयस्या कृतनेपथ्यमंडना । स्वदीर्घनखरे तैलं चालादायसुंदरी ॥ ४७ ।। साऽगमद्यत्र स धीमानास्ते तत्र मनोहरः । अपूर्व तं नरं दृष्ट्वा प्राख्यन्मधुरया गिरा ॥ ४८ ।।
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