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________________ श्रेणिक पुराणम् २२१ भयंकर शब्द होते हैं, संग्राम में भी हाथियों के चीत्काररूपी भीषण शब्द थे। महासागर जिस प्रकार बालू सहित होता है, संग्राम भी पिसी हुई हड्डीरूपी बालू सहित था। महासमुद्र-जैसा कीचड़ व्याप्त रहता है, संग्राम भी मांसरूपी कीचड़ से व्याप्त था। महासागर में जैसे मेंढ़क और कछुवे रहते हैं, संग्राम में भी वैसे ही कटे हुए घोड़ों के पैर मेंढ़क और हाथियों के पैर कछुवे थे। महासागरजैसा खंड पर्वतयुक्त होता है। संग्राम भी मृत शरीरों का ढेररूप खंड पर्वतयुक्त था। महासागर में जैसे सर्प रहते हैं, संग्राम में भी कटी हुई हाथियों की पूंछे सर्प थीं। महासागर-जैसा पवन परिपूर्ण रहता है, संग्राम भी योद्धाओं के स्वासोच्छ्वासरूपी पवन से परिपूर्ण था। महासागर में जैसा वडवानल होता है, संग्राम में भी उसी प्रकार चमकते हुए चक्र वड़वानल थे। महासागर-जैसा बेलायुक्त होता है, उसी प्रकार संग्राम में भी समस्त दिशाओं में घूमते हुए योद्धारूपी बेला थी। सागर में जैसे नाव और जहाज होते हैं, संग्राम में भी घोड़ेरूपी नाव और जहाज थे। तथा संग्राम में खडगधारी खड़गों से युद्ध करते थे। मुष्टि-युद्ध करनेवाले मुष्टियों से लड़ते थे। कोई-कोई आपस में केश पकड़कर युद्ध करते थे। अनेक वीर पुरुष भुजाओं से लड़ते थे। पैरों से लड़ाई करने वाले पैरों से लड़ते थे। सिर लड़ानेवाले सुभट सिर लड़ाकर युद्ध करते थे। बहुत-से सुभट आपस में मख भिडाकर लडते थे। गदाधारी और तीरंदाज गदाधारी और तीरंदाजों से लडते थे। घडसवार घुड़सवारों से, गजसवारों से, रथसवार रथसवारों से एवं पयादे पयादोंसे भयंकर युद्ध करते थे। उस संग्राम में अनेक वीर पुरुष शब्द-युद्ध करनेवाले थे इसलिए वे शब्द-युद्ध करते थे। लाठी चलानेवाले लाठियों से युद्ध करते थे। एवं राजा राजाओं से युद्ध करते थे। तथा शिलायुद्ध करनेवाले शिलाओं से, बाँसयुद्ध करनेवाले सुभट बाँसों से, वृक्ष उखाड़कर युद्ध करनेवाले वृक्षों से करते थे। हल के धारक अपने हलों से युद्ध करते थे। इस प्रकार दोनों राजाओं का आपस में कई दिन तक भयंकर युद्ध होता रहा । अन्त में जब प्रजापाल ने यह देखा कि राजा चंड़प्रद्योतन जीता नहीं जा सकता तो उसे बड़ी चिंता हुई वह उसके जीतने के लिए अनेक उपाय सोचने लगा॥१३५-१६०।। सोऽन्येद्युः पुष्पला नृणां मुखान्मत्त्वामुनीश्वरं । दुर्गसंलग्न विपिने स्थितं मां जिनपालकं ॥१६॥ चचाल वंदितुं भूपः प्रजापालः सुहर्षतः । तत्र नत्वा मुनि धीरं कायोत्सर्गस्थितः प्रभुः ।।१६२।। तदेति प्रार्थयामास कश्चितं मुनिपुंगवं । प्रयच्छ भो मुने राज्ञेऽभयदानं च वैरिणः ॥१६३।। ततस्तद्वषपाकेन कया चिद्वनरक्षया । देव्योक्तं नृप मा औषी भविताते जयः खलु ॥१६४॥ तस्या अदृश्यरूपाया वचः श्रुत्वा नृपादयः । जहर्षुस्ते मुनिर्वाक्यं मत्वा निश्चितमानसाः ॥१६५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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