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पंचमः सर्गः
सुधर्मात्सुखमापन्नौ तौ यस्माद्धर्ममुत्तमं । तं स्तुवे भूतिसंसिद्धयै शुभपाकविधायिनं ॥ १ ॥ अथ स श्रेणिको धीमान् कांतया रमते सुखं । पक्व मालूर संपीन पयोधर शुभश्रिया ॥ २ ॥
कदाचिन्निम्नगातटे ।
कदाचिद्वन देशेषु
सौधोत्संगे कदाचिच्च ह्यनया रेमे स पुण्यतः ॥ ३ ॥
तद्रम्यदेहसंस्पर्शादवाप
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स
रसमुल्वणम् । यथानिधिसंसर्गात्कदर्यो विकचेक्षणः ॥ ४ ॥ तत्करसंस्पर्शादाजन्माप्राप्तमुल्वणं ।
साऽपि
लेभे शर्मा तनुप्रौढं पद्मिनीवार्कसंकरात् ॥ ५ ॥
रूपवीक्षणजं कदा ।
शर्मस्तनस्पर्शन संभवं ॥ ६ ॥
चुंबनोत्थं सुभावोत्थं
रतिजं
हास्यजं
क्रीडोद्भवं कदाचित्स
कथाकौतुक संभवं ।
तस्याः प्रापन्मनोऽभीष्टं करणोत्थं च मानसं ॥ ७ ॥ इति शर्माब्धिमध्यस्थौ वित्तः कालं गतं न हि ।
दंपती रूढ संक्रीडौ व्रीडाभूषौ प्रियस्मरौ ॥ ८ ॥
जिस उत्तम धर्म की कृपा से संसार में उन दोनों दंपती को अतिशय सुख मिला। धर्मात्मा पुरुषों को अनेक विभूति देनेवाले उस परम पवित्र धर्म को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता
इस प्रकार विवाह के अनन्तर कुमार श्रेणिक ने पके हुए ताल फल के समान उत्तम स्तनों से मण्डित, मन को भली प्रकार सन्तुष्ट करनेवाली, कान्ता नन्दश्री के साथ क्रीड़ा करना प्रारम्भ कर दी। कभी तो कुमार उसके साथ मनोहर उद्यानों के लता-मण्डपों में रमने लगे। कभी उन्होंने नदियों के तट अपने क्रीड़ा स्थल बनाये । तथा कभी-कभी वे उत्तम स्तनों से विभूषित नन्दश्री के साथ महल की अटारियों में कोड़ा करने लगे । जिस प्रकार दरिद्री पुरुष खजाना पाकर अति मुदित हो जाता है और उसे अपने तन-बदन का भी होशोहवास नहीं रहता। उसी प्रकार कुमार उस नन्दश्री के देह-स्पर्श से अतिशय आनन्द-रस का अनुभव करने लगे । मनोहारांगी नन्दश्री भी सूर्य की किरण-स्पर्श से जैसे कमलिनी आनन्दित होती है उसी प्रकार कुमार के हाथ के कोमल
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