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________________ श्रेणिक पुराणम् २१७ था। रानी लक्ष्मीमती अति मनोहरा थी, समस्त रानियों में मेरी प्राणवल्लभा थी। चंद्रमुखी एवं काम-मंजरी थी। हम दोनों दंपती में गाढ़ प्रेम था। एक दूसरे को देखकर जीते थे। यहाँ तक कि हम दोनों ऐसे प्रेम में मस्त थे कि हमको जाता हुआ काल भी नहीं मालूम होता था। कदाचित् मुझे एक दिगम्बर गुरु के दर्शन का सौभाग्य मिला। मैंने उनके मुख से जैन धर्म का उपदेश सुना। उपदेश में मुनिराज के मुख से ज्योंही मैंने संसार की अनित्यता, बिजली के समान विषय-भोगों की चपलता सुनी, मारे भय के मेरा शरीर काँप गया। कुछ समय पहले जो मैं भोगों को अच्छा समझता था वे ही मुझे विष सरीखे महसूस होने लगे। मैं एकदम संसार से उदास हो गया। और उन्हीं मुनिराज के चरण-कमलों में तुरन्त जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। इसी पृथ्वी-तल में एक अति मनोहर कौशांबी नगरी है। कौशांबीपुरी के राजा का मंत्री जो कि नीति-कला में अतिशय चतुर गरुड़ वेग था। मंत्री गरुड़ वेग की प्रिय भार्या गरुड़दत्ता थी। गरुड़दत्ता परम सुंदरी, चंद्रवदना एवं पतिभक्ता थी। किसी समय विहार करता-करता मैं कौशांबी नगरी में जा पहुँचा। और वहाँ किसी दिन मंत्री गरुड़वेग के घर आहारार्थ गया। ज्योंही गरुड़दत्ता ने मुझे अपने घर आते देखा भली प्रकार मेरा विनय किया। आह्वान कर काष्टासन पर बिठाकर मेरा चरण-प्रक्षालन किया। एवं मन और इन्द्रियों को भली प्रकार संतुष्ट करनेवाला मुझे सर्वोत्तम आहार दिया। आहार देते समय गरुड़दत्ता के हाथ से एक कवल नीचे गिर गया। कवल गिरते ही मेरी दृष्टि भी जमीन पर पड़ी। ज्योंही मैंने गरुड़दत्ता के पैर का अँगूठा जमीन पर देखा मुझे शीघ्र ही अपनी प्रियतमा लक्ष्मीमती के अँगूठे की याद आई। मेरे मन में अचानक यह विकल्प उठ खड़ा हुआ। अहा ! जैसा मनोहर अँगूठा रानी लक्ष्मीमती का था वैसा ही इस गरुड़दत्ता का है। बस, फिर क्या था ? मेरे मन के चलित हो जाने से हे राजन् ! आज तक मुझे मनोगुप्ति की प्राप्ति न हुई। इसलिए मैं मनोगुप्ति रहित हूँ ॥१२३-१३४॥ राश्योक्तं ये त्रिगुप्तास्ते तिष्ठतु मम मंदिरे । अमनोगुप्ति भावेन नातिष्ठाम वयं गृहे ॥१३५।। धन्यं धन्यमिदं लोके शासनं पापनाशनं । धन्यो धन्योऽयमायोगी यथार्थलेपभाषणः ॥१३६॥ तथात्वं भुवने नास्ति यादृशं जैनशासने । इतिप्रशंस्य भूपालो नत्वोत्तस्थौ मुनीश्वरं ॥१३७॥ जिनपालमुनि प्राप्य भूपो नत्वा मुहुर्मुहुः । पप्रच्छेति महाभक्त्या शिरोघृतकृतांजलिः ॥१३८।। अस्मिन्मंदिरमासाद्य यूयं किमु स्थिता नहि । इत्याकर्ण्य जगौ योगी मेघगंभीर वाचया ॥१३॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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