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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येणविरचितम्
में अनेक वेदना भोगनी पड़ती है। मैं तुम्हारी कथा सुन चुका अब मैं भी तुम्हें एक अत्युत्तम कथा सुनाता हूँ तुम ध्यानपूर्वक सुनो
इसी पृथ्वीतल में उत्तमोत्तम तोरण पताका आदि से शोभित, समस्त नगरियों में उत्तम कोई द्वारावती नाम की नगरी थी। किसी समय द्वारावती के पालक महाराज श्रीकृष्ण थे। महाराज श्रीकृष्ण परम न्यायी थे। न्याय से राज्य के चारों ओर उनकी कीति फैली हुई थी और सत्यभामा, रुक्मिणी आदि कामिनियों के साथ भोग भोगते वे आनंद से रहते थे। कदाचित् राज्य सिंहासन पर बैठे वे आनन्द में मग्न थे इतने ही में एक माली आया उसने विनयपूर्वक महाराज को नमस्कार किया, और उत्तमोत्तम फल भेंटकर वह इस प्रकार निवेदन करने लगा।
प्रभो! प्रजापालक ! एक परम तपस्वी वन में आकर विराजे हैं। माली के मुख से मुनिराज का आगमन सुन महाराज श्रीकृष्ण को परमानंद हुआ। वे जिस काम को उस समय कर रहे थे उसे शीघ्र ही छोड़ दिया। उचित पारितोषिक दे माली को प्रसन्न किया । अनेक नगर निवासियों के साथ चतुरंग सेना से मंडित महाराज ने वन की ओर प्रस्थान कर दिया। वन में आकर मुनिराज को देख भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। और कुछ उपदेश श्रवण की इच्छा से मुनिराज के पास भूमि में बैठ गये। उस समय मुनिराज का शरीर व्याधिग्रस्त था इसलिये उस व्याधि के दूर करणार्थ राजा ने यही प्रश्न किया।
प्रभो! इस रोग की शांति का उपाय क्या है ? किस औषधि के सेवन करने से इस रोग का नाश हो सकता है, कृपया मुझे शीघ्र बतावें राजा श्रीकृष्ण के ऐसे वचन सुन मुनिराज ने कहा
नरनाथ ! यदि रत्नकापिष्ट (१) नाम का प्रयोग किया जाय तो यह रोग शान्तहो सकता है और इस रोग की शान्ति का कोई उपाय नहीं। मुनिराज के मुख से ऐसे औषधिक वचन सुन राजा श्रीकृष्ण को परम सन्तोष हआ। मनिराज को विनयपूर्वक नमस्कार कर वे द्वारावती में आ गये और मुनिराज के रोग दूर करने के लिए उन्होंने सर्वत्र आहार की मनाई कर दी।
दूसरे दिन वे ही ज्ञानसागर मुनि आहारार्थ नगर में आये। विधि के अनुसार वे इधरउधर नगर में घूमे किंतु राजा की आज्ञानुसार उन्हें किसी ने आहार न दिया। अन्त में वे राजमंदिर में आहारार्थ गये। ज्यों ही राजमंदिर में मुनिराज ने प्रवेश किया रानी रुक्मिणी ने उनका विधिपूर्वक आह्वान किया पडगाहन आदि कार्य कर भक्तिपूर्वक आहार भी दिया। रत्नकापिष्ट चूर्ण एवं अन्यान्य औषधियों के ग्रास भी दिये। एवं आहार ले चुकने पर मुनिराज वन को चले गये।
इस प्रकार औषधियों के प्रयोग करने से मुनिराज का रोग सर्वथा नष्ट प्राय हो गया वे शीघ्र ही नीरोग हो गये। किसी समय किसी वैद्य के साथ महाराज श्रीकृष्ण वन में गये। जहाँ पर परम पवित्र मुनिराज विराजमानथे उसी स्थान पर पहुँच उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। और मुनिराज के सामने ही वैद्य ने यह कहा प्रजानाथ ! मुनिराज का रोग दूर हो गया है। वैद्य के मुख से जब मुनिराज ने ये वचन सुने तो वे इस प्रकार उपदेश देने लगे।
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