________________
श्रणिक पुराणम्
नरनाथ ! संसार में जीवों को जो सुख-दुःख कल्याण और अकल्याण भोगने पड़ते हैं उनके भोगने में कारण पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्म है । जिस समय ये शुभ-अशुभ कर्म सर्वथा नष्ट हो जाते हैं उस समय किसी प्रकार का सुख-दुःख भोगना नहीं पड़ता । कर्मों के सर्वथा नष्ट हो जाने पर परमोत्तम सुख मोक्ष मिलता है। राजन् ! शुभ-अशुभ कर्मरूपी अंतरंग व्याधि के दूर करने में अतिशय पराक्रमी चक्रवर्ती भी समर्थ नहीं हो सकते । ये औषधि आदिक व्याधि की निवृत्ति में बाह्य कारण हैं। उनसे अंतरंग रोग की निवृत्ति कदापि नहीं हो सकती ।
मुनिराज तो वीतराग भाव से ये उपदेश दे रहे थे उन्हें किसी से उस समय द्वेष न था किंतु वैद्यराज को उनका यह उपदेश हलाहल विष सरीखा जान पड़ा। वह अपने मन में ऐसा विचार करने लगा यह मुनि बड़ा कृतघ्नी है। रोग की निवृत्ति का उपाय इसने शुभाशुभ कर्म की निवृत्ति ही बतलाई है मेरा नाम तक भी नहीं लिया। इस मुनि के वचनों से यह साफ मालूम होता है हमने कुछ नहीं किया । जो कुछ किया है कर्म की निवृत्ति ने ही किया है तथा इस प्रकार रौद्र विचार करते-करते वैद्य ने उसी समय आयुबंध बाँध लिया और आयु के अन्त में मरकर वह वानर योनि में उत्पन्न हो गया ।। ३२४-३४५।।
Jain Education International
तत्र
एकदा विपिने स एव मुनिसत्तमः । पत्यं केन स्थितो ध्याने निमीलितनिजेक्षणः || ३४६ ॥
शाखामृगः समालोक्य दैवात्तं मुनिपुंगवम् । सस्मार पूर्ववृत्तांतं राजाग्रे
तीक्ष्णकाष्टेन जंघा स मुनेर्विव्याध मर्कटः । त्यक्तगात्रात्मसंगस्य
निर्ममत्त्वपरारूढं विशुद्ध मन चेत स्कं
नासाग्रदत्तसुन्नेत्रं विश्वस्तध्यानयुग्यं
दिविष्टां
पवित्र
च
मानभंगजम् ॥३४७॥
निर्गतानेकदुर्मतेः ।। ३४८॥
शाम्यकोटिपराश्रितम् ।
चाष्टसत्पदम् ।।३४६ ॥
पदपूरितम् ।
सुध्यानपदसाधकम् ॥ ३५० ॥
उत्कीर्णमिव पाषाणे विगतांहिकरक्रियाम् । तं मुनिं वीक्ष्य निर्विण्णः कीशः शांतिं जगाम च ।। ३५१ ।।
काष्टमुत्पाद्य वेगेन पूर्वानुभवभेषजैः । निर्व्रणं तं विधायाशु पूजयामास पुष्पकैः || ३५२ ||
२७६
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org