SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् प्रणम्य मुनिवाक्येन ससम्यक्त्वमणुव्रतम् । कीशो जग्राह स्वं निंदन् विभिन्नमदमंडलः ॥ ३५३॥ अविचार्य प्रकोपादि कुर्वते ये नराधमाः । तिरश्चां ते गतिं यान्ति नारकीयां च भो वणिक् ।। ३५४ || हस्तमर्षणमाप्नोति योऽविचार्य क्रियोद्यतः । इहैवायशसः स्थानममुत्राशर्मभाग्भवेत् ।। ३५५।। Jain Education International अविचार्याधमो वक्त्ययुक्तं युक्तिविमुक्तधीः । हास्यास्पदं भवेन्नूनं नरो नारकवांछकः ।।३५६।। क्व वैद्यो दैत्यशत्रोश्च मान्यः शास्त्रांगपारगः । वानरीगतिः सर्वमिदं ज्ञातसत्फलम् ॥। ३५७।। तस्य युक्तं न वा श्रेष्ठिन्नुपसर्गविधानकम् । सोऽवोचन्नोचितं नाथ परीक्षा वर्जितात्मनः || ३५८ | क्व कदाचित् विहार करते-करते मुनिराज, जिस वन में यह वानर रहता था उसी वन में पहुँचे और पर्यंक आसन मांड़कर नासाग्र दृष्टि होकर ध्यानैकतान हो गये। किसी समय मुनिराज पर बन्दर की दृष्टि पड़ी। मुनिराज को देखते ही उसे जाति-स्मरण हो गया । जातिस्मर के बल से उसने अपने पूर्व भव का सब समाचार जान लिया । राजा श्रीकृष्ण के सामने मुनिराज के उपदेश से जो उसे अपना पराभव समझा था वह पराभव भी उसे उस समय स्मरण हो आया । और मारे क्रोध के उस पापी ने पवित्र किंतु ध्यान रस में लीन मुनि ज्ञानसागर के ऊपर एक विशाल काष्ठ पटक दिया। उन्हें अनेक प्रकार पीड़ा भी देने लगा। किंतु मुनिराज जरा भी ध्यान से विचलित न हुए । चिरकाल तक प्रयत्न करने पर भी जब बंदर ने देखा कि मुनिराज ममता रहित, समता रस में लीन, निर्मल ज्ञान के धारक, हलन चलन क्रिया से रहित, परम पद मोक्ष पद के अभिलाषी परम किंतु उकृष्ट धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के आचरण करने वाले, ध्यान बल से परम सिद्धि प्राप्ति के इच्छुक, पाषाण में उकली हुई प्रतिमा के समान निश्चल, और हाथ-पैर की समस्त चेष्टाओं से रहित हैं तो उसे भी एकदम वैराग्य हो गया। कुछ समय पहले जो उसके परिणामों में रौद्रता थी वह मुनिराज की शान्त मुद्रा के सामने शान्तिरूप में परिणत हो गई । वह अपने दुष्कर्म के लिए अधिक निन्दा करने लगा। मुनिराज पर जो काठ डाला था वह भी उसने उठा के एक ओर रख दिया । वह पूर्वभव में वैद्य था इसलिये मुनिराज पर काष्ठ पटकने से जो उनके शरीर में घाव हो गए थे उत्तमोत्तम औषधियों से उन्हें भी उसने अच्छा कर दिया । अब वह मुनिराज की शुद्ध हृदय से भक्ति करने लगा और यह प्रार्थना करने लगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy