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श्रेणिक पुराणम्
प्रभो ! अकारण दीनबन्धों ! मेरे इन पापों का छुटकारा कैसे होगा ? मैं अब कैसे इन पापों से बलूंगा ? कृपाकर मुझे कोई ऐसा उपाय बतावें जिससे मेरा कल्याण हो । मुनिराज परम दयालु थे उन्होंने वानर को पंच अणुवत का उपदेश दिया और भी अनेक उपदेश दिये । वानर ने भी मुनिराज की आज्ञानुसार पंच अणुव्रत पालने स्वीकार कर लिये अहंकार क्रोध आदि जो दुर्वासनायें थीं उन्हें भी उसने छोड़ दिया । और हर समय अपने अविचारित काम के लिए पश्चात्ताप करने लगा । सेठ जिनदत्त ! तुम निश्चय समझो जो नीच पुरुष बिना विचारे क्रोध, मान-माया आदि कर बैठते हैं । उन्हें पीछे अधिक पछताना भोगना पड़ता है वे तिर्यंच नरक आदि गतियों में जाते हैं । वहाँ उन्हें अनेक दुस्सह्य वेदनायें सहनी पड़ती हैं। अविचारित काम करने वाले इस लोक में भी राजा आदि से अनेक दण्ड भोगते हैं। उनकी सब जगह निंदा फैल जाती है । परलोक में भी उन्हें सुख नहीं मिलता। अबुद्धिपूर्वक काम करने वालों की सब जगह हँसी होती है । देखो अनेक शास्त्रों का भले प्रकार ज्ञाता, राजा श्रीकृष्ण के सम्मान का शाजन वह वैद्य तो कहाँ ? और कहाँ अशुभ कर्म के उदय से उसे बन्दर योनि की प्राप्ति ? यह सब फल अज्ञानपूर्वक कार्य करने का है । जिनदत्त ! यह कथा तुम ध्यानपूर्वक सुन चुके हो तुम्हीं कहो क्या उस बन्दर का वह कार्य उत्तम था ? जिनदत्त ने कहा ।।३४६-३५८।।
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अबीभणत्कथां कम्रां मुनेः सद्भावसूचिकाम् । वदतमिति तत्पुत्रः स्वतातं वीक्ष्य लोभतः || ३५६ ।। कुंभं कुबेरदत्तश्च निष्कास्य स्थानतोऽन्यतः । न्यक्षिपत् जनकस्याग्रे विवादविधिहानये ॥३६०॥ स्वामिन्मज्जनकेनैव लक्ष्मीलोभेन किं कृतम् । मुनिश्चौरः कृतो वेगाद्विग् लक्ष्मीं दुखभाजनं ॥ ३६१॥ लोभमूलानि पापानि लोभमूला च वेदना । लोभमूलो महाद्वेषो लोभमूलो ह्यनिष्टता ॥३६२॥ व्याघ्राम्रबीजे कलभः शुकश्च सुतुंदिलो वै वृषभो द्विजश्च । नागारिवेश्या च सुवर्णकारो गजोभिषक्ताः
च कथा: प्रचक्रुः ।। ३६३। दीक्षां शिवबद्धकक्षां स्यांगजस्तं विधिवद्ययाचे । वरशर्ममत्त्वा
लज्जाकुलास्यो हृदि निर्वृतोऽभूत् ।।३६४।।
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मां देहि
श्रेष्ठीतिदृष्ट्वा
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