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________________ २८ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् चिरं विनिंद्य तौ निजं समस्तवस्त्ववाङ मुरवौ । सुदीक्षितौ सुशिष्यतांगतौ विशुद्धमानसौ । पुराणपाठपूरितौ पवित्रचित्रयोगिनौ । बमूवतुस्त्रि गुप्तिगुप्त विग्रहौ स्वनिग्रहौ ॥३६५।। भूपायते यतिवरा वरधर्ममार्गवर्गे वयं स्थितिकृतस्तवपुण्ययोगात् । पृष्टा इति प्रणतमौलिविवद्धदीप्त्या ॥३६६।। गप्त्या ये यतयः खलगुप्ताम् । आजग्मुरेव वरधाम्नि सुपट्टराज्याः ते तिष्ठंतु गृहे मम दीप्ताः । तस्मादंगविगोपनभावान्नास्थामोऽवधिबोध विहीनाः ॥३६७॥ श्रुत्वा कारणमुत्तमं नरपतिः संतुष्टस्वांतस्तया । साकं शक्यवृषं सुदर्शनसमं लब्ध्वा रसं वाक्यजं । नत्वा सन्मुनिपादपंकजयुगं स्मृत्वा गुणं तद्भवं । प्रापत्यत्तनमुत्तमं सह बले: श्रेयः कथालालसः ॥३६८।। मुनिनाथ! बन्दर का वह अविचारित काम सर्वथा अयोग्य था। बिना विचारे अभिमानादि वशीभूत हो नीच काम करने वाले मनुष्यों को ऐसे ही फल मिलते हैं। इसके अनन्तर हे मगध देश के स्वामी राजा श्रेणिक ! सेठ जिनदत्त मेरी कथा के उत्तर में दूसरी कथा कहना ही चाहता था कि उसके पास उसका पुत्र कुबेरदत्त भी बैठा था और सब बातों को बराबर सुन रहा था इसलिए उसने विवाद की शान्त्यर्थ शीघ्र ही वह रत्न-भरित घड़ा दूसरी जगह से निकालकर मेरे देखते-देखते अपने पिता के सामने रख दिया। और विनयपूर्वक इस प्रकार प्रार्थना करने लगा। प्रभो ! समस्त जगत के तारक स्वामिन् ! मेरे पिता ने बड़ा अनर्थ कर डाला। इस दुष्ट धन के फंदे में फंसकर आपको भी चोर बना दिया। हाय ! इस धन के लिए सहस्र बार धिक्कार है। दीनबन्धो। यह बात सर्वथा सत्य जान पड़ती है संसार में जो घोर से घोर पाप होते हैं वे लोभ से ही होते हैं। संसार में यदि जीवों का परम अहित करने वाला है तो यह लोभ ही है। प्रभो। किसी रीति से अब मेरा उद्धार कीजिये। मुक्ति में असाधारण कारण मुझे जैनेश्वरी दीक्षा दीजिये। अब मैं क्षण-भर भी भोग भोगना नहीं चाहता। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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