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श्रेणिक पुराणम्
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जिनदत्त भी रत्नों के घड़ा को और पुत्र को संसार से विरक्त देख अति दुःखित हुआ अपने अविचारित काम पर उसे बहत लज्जा आई संसार को असार जान उसने भी धन से सम्बन्ध छोड़ दिया। अपनी बार-बार निन्दा करने वाले समस्त परिग्रह से विमुख उन दोनों पिता पुत्र ने मुझसे जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। एवं अतिशय निर्मल चित्त के धारक, भली प्रकार उत्तमोत्तम शास्त्रों के पाठी, परिग्रह से सर्वथा निस्पृह, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति के धारक, वे दोनों दुर्धर तप करने लगे।
__ इस प्रकार हे मगधदेश के स्वामी श्रेणिक ! अनेक देशों में विहार करते-करते हम तीनों मुनि राजगृह में भी आये। उक्त दो मुनियों के समान मैं त्रिगुप्ति पालक न था मेरे अभी तक कायगुप्ति नहीं हुई इसलिए मैंने राजमंदिर में आहार न लिया। आहार न लेने का और कोई कारण नहीं।
इस रीति से तीनों महाराजों के मुख से भिन्न-भिन्न कथा के श्रवण से अतिशय सन्तुष्ट चित्त मोक्ष सम्बन्धी कथा के परम प्रेमी महाराज श्रेणिक मुनिराज को नमस्कार कर राजमन्दिर में गये। राजमन्दिर में जाकर सम्यग्दर्शन पूर्वक जैन-धर्म धारण कर मुनिराजों के उत्तमोत्तम गुणों का निरन्तर स्मरण करते हुए रानी चेलना और चतुरंग सेना के साथ आनन्दपूर्वक राजमन्दिर में रहने लगे।।३५६-३६८॥
इति श्रेणिकभवानबद्धभविष्यत्पत्मनाभपुराणे मुमुक्षु श्री शुभचंद्राचार्य विरचिते
कायगप्तिकथा वर्णनं नामैकादशः सर्गः ॥११॥
इस प्रकार श्री पद्मनाभ भगवान के पूर्वभव के जीव महाराज श्रेणिक के चरित्र में मुमुक्ष श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित काय-गुप्ति कथा का वर्णन करनेवाला
ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ।
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