________________
१८६
श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
कृपानाथ! क्या आप नहीं जानते ? शरीर नराये खड़ा हुआ, महाभिमानी यही तो रानी चेलना का गुरु है। बस, वहाँ कहने मात्र की ही देरी थी, महाराज इस फिराक में बैठे ही थे कि कब रानी का गुरु मिले और कब उसका अपमान कर मैं रानी से बदला लूं। ज्योंही महाराज ने पार्श्वचर के वचन सुने अति क्रोध से उनका शरीर उबल उठा। वे विचारने लगे
अहा ! रानी से बैर का बदला लेने का आज सुअवसर मिला है। रानी ने मेरे गुरुओं का बड़ा अपमान किया है। उन्हें अनेक कष्ट पहुँचाये हैं। मुझे आज यह रानी का गुरु मिला है। अब मुझे भी इसे कष्ट पहुँचाने में और इसका अपमान करने में चूकना नहीं चाहिए। तथा ऐसा क्षणेक विचार कर महाराज ने शीघ्र ही पाँच सौ शिकारी कुत्ते, जो लंबी-लंबी डाड़ों के धारक, सिंह के समान ऊँचे एवं भयंकर थे, मुनिराज पर छोड़ दिये।
मुनिराज परम ध्यानी थे, उन्हें अपने ध्यान के सामने इस बात का जरा भी विचार नहीं था कि कौन दुष्ट हमारे ऊपर क्या अपकार कर रहे हैं ? इसलिए ज्योंही कुत्ते मुनिराज के पास गये। और ज्योंही उन्होंने मुनिराज की शांत मुद्रा देखी, सारी करता उनकी शांति में पलट गई। मंत्रकीलित सर्प-जैसा शांत पड़ जाता है मंत्र के सामने उसकी कुछ भी करामात नहीं चलती उसी प्रकार कुत्ते भी शांत हो गये। मुनिराज की शांत मुद्रा के सामने उनकी कुछ भी हिम्मत नहीं चली। वे मुनिराज की प्रदक्षिणा लेने लगे। और उनके चरण-कमलों में बैठ गये ॥१४१-१५४॥
तथास्थांस्तान् विलोक्यासौक्रु द्धोऽवादीद्वचस्तदा । धूर्तोऽयं मंत्रवादज्ञोनानादेशावलोकिक: ॥१५५॥ अनेन कीलिताः सर्वे शनकामेऽद्यनिश्चितम् । दर्शयामि फलंतस्य तस्यैवाशुभकर्मणः ॥१५६॥ इति संभाष्य चोत्क्षिप्य कृपाणं मुनिसूदने । मार्गेऽटन् शकुनघ्नं च नागमैले समुत्फणं ॥१५७।। अनिष्टं तं परिज्ञाय मारयामाग दुष्टधीः । शुभेः कंठे महापापी न्यक्षिपन्मुतसर्पकं ॥१५८।। तदातिरौद्रभावेन बबंध क्षितिनायकः । महातमः प्रभाख्यस्य निरयस्यायुरंतदं ।।१५।। त्रयस्त्रिशत्समुद्रायुर्धनुः पंचशतोच्छ तिः । यत्रास्ते परमं दुःखं कविवाचामगोचरं ।।१६०॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org