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श्रेणिक पुराणम्
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निश्चलांगं मनः कृत्वा स्थितां मां व्रतरक्षितुं । चकार विविधां चेष्टां वस्त्रोत्क्षेपणजां स च ।।११।। मच्छीलेन समागत्य वनदेव्या निवारितः । नरजन्मनि यत्सारं व्रतानामपि भूषणम् ॥१२०॥ ततः स सार्थवाहस्य कुद्धो मूल्यं न मां ददौ । तेऽपि मां दिव्यकन्याभां वीक्ष्य मारशराहताः ।।१२१॥ ते शीलखंडने रक्ता बभूवुर्यावदुन्मुखाः । वनदेव्या तदागत्य पीड़िता यष्टिमुष्ठिभिः ।।१२२॥ तत्रापि रक्षणे हेतुर्बभूव वनदेवता । शीलप्रभावतो नूनं किंकरा हि सुरा नराः ॥१२३॥
बाले ! तुझे जिस बात की आवश्यकता हो कह, मैं उसे करने के लिए तैयार हैं। तू मेरी प्राणवल्लभा बनना स्वीकार कर ले। मैं तुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी रखूगा। तू किसी प्रकार अपने चित्त में भय न कर । भिल्ल पति के ऐसे वचन सुन मैं भौंचक रह गई। किंतु मैंने धैर्य हाथ से न जाने दिया इसलिए शीघ्र ही प्रौढ़ किंतु शांतिपूर्वक इस प्रकार जवाब दिया
भिल्ल सरदार ! आपका यह कथन सर्वथा विरुद्ध और मलिन है। जो स्त्रियां उत्तम वंश में उत्पन्न हुई हैं । और जो मनुष्य कुलीन हैं कदापि उन्हें अपना शीलवत नष्ट न करना चाहिए। आप यह विश्वास रखें जो जीव अपने शीलव्रत की कुछ भी परवा न कर दुष्कर्म कर डालते हैं, उन्हें दोनों जन्मों में अनेक दुःख सहने पड़ते हैं । संसार में उनको कोई भला नहीं कहता।
उस समय वह चोरों का सरदार कामबाण से विद्ध था। भला वह धर्म-अधर्म को क्या समझ सकता था। इसलिए तप्त लौह-पिंड पर जल-बूंद जैसे तत्काल नष्ट हो जाती है उसका नामोनिशान भी नजर नहीं आता। वैसे ही मेरे वचनों का भिल्लराज के चित्तपर ज़रा भी असर न पड़ा वह "कबूतरी पर जेसे बाज टूटता है" एकदम मुझ पर टूट पड़ा और मुझे अपनी दोनों भुजाओं में भरकर कामचेष्टा करने के लिए उद्यत हो गया।
जब मैंने उसकी यह घृणित अवस्था देखी तो मैं अपने पवित्र शीलवत की रक्षार्थ आसन बाँधकर निश्चल बैठ गई। मैंने उसकी ओर निहारा तक नहीं। बहुत समय तक प्रयत्न करने पर भी जब उस पापी का उद्देश्य पूर्ण न हो सका तो वह अति कुपित हो गया। उसने शीघ्र ही अपने साथियों के हाथ मुझे बेच डाला और अपने क्रोध की शांति की।
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