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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
होने पर आ चुका, उन्हें घर की याद आई। वे शीघ्र अपने घर के द्वार पर आकर इस प्रकार पुकारने लगे
प्राणवल्लभे ! कृपा कर आप दरवाजा खोलें । मैं दरवाजे पर खड़ा हूँ। मैं उस समय अर्ध निद्रित थी इसलिए दो-एक आवाज तो मैं उनकी सुन न सकी किंतु जब वे स्वभाव से बार-बार पुकारने लगे तो मैंने उनकी आवाज तो सुन ली परंतु ये इतनी रात तक कहाँ रहे ? क्यों अपने समय पर अपने घर न आये। ऐसा उन पर दोषारोषण कर फिर भी मैंने आवाज न दी, और न दरवाजा खोला। कुछ समय बाद वे मुझे 'तुम' शब्द से पुकारने लगे तो भी मैंने उत्तर न दिया प्रत्युत मैं उन पर अधिक घृणा करती चली गई और मेरा गर्व भी बढ़ता चला गया। अंत में जब सोम शर्मा अधिक घबरा गये, मेरी ओर से उन्हें कुछ भी जवाब न मिला तो उन्हें क्रोध आ गया। क्रोध के आवेश में उन्हें कुछ न सूझा वे मुझे फिर इस रीति से पुकारने लगे
अरी तुकारी! दरवाजा तू क्यों नहीं जल्दी खोलती? दरवाजे पर खड़े-खड़े हमें कितना समय बीत चुका है ? रात्रि के अधिक व्यतीत हो जाने से हम कष्ट भोग रहे हैं।
बस, फिर क्या था? रे भाई जिनदत्त! ज्योंही मैंने अपने पति के मुख से तुंकारी शब्द सुना मेरा क्रोध के मारे शरीर भभक उठा। मेरे पति अर्ध रात्रि के बीतने पर घर आये थे इसलिए मैं स्वभाव से ही उन पर कुपित बैठी थी किंतु तुंकारी शब्द ने मुझे बेहद कुपित बना दिया। मुझे उस समय और कुछ न सूझा किवाड़ खोल मैं घर से निकली और वन की ओर चल पड़ी।
उस समय रात्रि अधिक बीत चुकी थी। नगर में चारों ओर सन्नाटा छा रहा था उस समय उल्ल, चोर आदिक ही आनंद से जहाँ-तहाँ भ्रमण करते फिरते थे। और कोई नहीं जागता था। मैं थोड़ी ही दूर अपने घर से गई थी। मेरे बदन पर कीमती भूषण, वस्त्र थे। इसलिए मुझ पर चोरों की दृष्टि पड़ी। वे शीघ्र मुझ पर बाघ सरीखे टूट पड़े। और मुझे कड़ी रीति से पकड़कर उन्होंने तत्काल अपने सरदार किसी भील के पास पहुंचा दिया। चोरों का सरदार वह भील बड़ा दुष्ट था ज्योंही उसने मुझे देखा वह अति प्रसन्न हुआ। और इस प्रकार कहने लगा॥१०३-११५॥
सोऽपि मां वीक्ष्य मूढात्मा जगाद वचनं तदा । भव मे वनिता वाले गृहाणाभीष्टवस्तु च ॥११६।। मयाऽवादी किरातेश न यूक्तं कुलयोषितां । नराणां च तथा ज्ञेयं दुःखदं शीलखंडनं ।।११७।। तीवकामानलैस्तप्तो नाकर्ण्य वचनं मम । बद्धकक्षो बभूबाशु शीलभंगाय पापधीः ।।११८॥
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