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________________ २५४ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् अपना गुजारा करता था एवं इन्द्र के समान उत्तमोत्तम भोग भोगता वहाँ आनंद से रहता था। वैद्यवर अगदंकार के अतिशय सुन्दर दो पुत्र थे। प्रथम पुत्र धनमित्र था। और दूसरे का नाम धनचन्द्र था। दोनों भाई माता-पिता के लाडले अधिक थे इसलिए अनेक प्रयत्न करने पर भी वे फूटा अक्षर भी न पढ़ सके। रोग आदि की परीक्षा का भी उन्हें ज्ञान नहीं हुआ। एवं वे निरक्षर भट्टाचार्य होकर घर में रहने लगे॥१६६-१८३।। अन्यदा किल्विषात्तातस्तयोरापचपंचतां । लोपयामास तदृत्ति भूपोऽन्यस्मै ददौ च तां ॥१८४॥ ततस्तौ दुःखसंपूर्णावभिमानेन पीड़ितौ । चंपायाँ जग्मतुस्तूर्णं शिवभूतेश्च पार्वके ।।१८५।। भिषगावेदकं शास्त्रं तत्राधीत्य चिरं च तो। चिकीर्षतः पुरं गंतुं निरगातां मुदा तदा ॥१८६॥ आटतौ तौ बने घोरे व्याघ्र क्र र भयावहं । नेत्रपीड़ापरिप्राप्तमद्राष्टामगदावहौ ॥१८७॥ धनमित्र स्तदावादीद्धं व्याघ्र सुभेषजैः । करोमीक्षाक्षमं तावत्कनिष्टेन निवारितः ॥१८८।। न कर्त्तव्यं न कर्त्तव्यं त्वया भेषजमुत्तमम् । दुष्टस्य विपदायै स्यादुपकारः कृतोऽपि च ॥१८६।। इति निर्वत्तितः सोऽपि ना स्थात्तावत्क्व निष्टकः । नगमारुह्य संस्थाताऽभूच्च विज्ञानपारगः ।।१६।। मूढो ज्येष्ठो . व्यधात्तस्य नेत्रयोर्वरभेषजम् । तदा निवृत्तपीडोऽसौ बभूव वरभेषजात् ॥१६१॥ स एव तेन चाभोक्षि तस्य युक्तं महामुने । पतत्कृतोपकारस्य वद माँ पापभाजिनः ।।१६२।। कृतघ्न एव शार्दूलः श्रेष्ठिन्नात्र विचारणा । नोचितं तस्य चैतद्धि योगीत्यबीभणद्वचः ।।१६३।। शुभाशुभं कृतं घ्नंति कृतघ्नास्ते महीतले । सप्तमं नरयं यांति परमर्मप्रकाशकाः ॥१६४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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