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________________ श्रेणिक पुराणम् प्रभो दीनबन्ध ! जब से आपने उज्जयनी छोड़ दी है। तब से वहाँ के निवासी श्रावक बड़ा दुःख मान रहे हैं । आपके चले आने से वे अपने को भाग्यहीन समझते हैं । और अहोरात्र आपके दर्शनों के लिए लालायित रहते हैं । कृपाकर एक समय आप जरूर ही उज्जयनी चलें और उन्हें आनंदित करें पीछे आपके आधीन बात है चाहे आप जायें या न जायें । जिनदत्त की ऐसी वचन भंगी सुन मैं अवाक् रह गया। मुझे शीघ्र ही उसके भीतरी अभिप्राय का ज्ञान हो गया । धन के लिए उसका ऐसा बर्ताव सुन में अपने मन में ऐसा विचार करने लगा । यह धन बड़ा निकृष्ट पदार्थ है । यह दुष्ट जीवों को घोर पाप का संचय कराने वाला और अनेक दुःख प्रदान करने वाला है । हाय !!! जो परम मित्र है अपना कैसा भी अहित नहीं चाहता वह भी इस धन की कृपा से परम शत्रु बन जाता है । और अनेक अहित करने के लिए तैयार हो जाता है । प्राण-प्यारी स्त्री इस धन की कृपा से सर्पिणी के समान भयंकर बन जाती है । जन्मदात्री, सदा हित चाहनेवाली, माता भी धन के फेर में पड़कर भयंकर व्याघ्री बन जाती है । धन के लिए पुत्र के मारने में वह जरा भी संकोच नहीं करती। धन के फेर में पड़कर एक भाई दूसरे भाई का भी अनिष्ट चिंतन करने लग जाता है। पिता भी धन की ही कृपा से अपने को सुखी माता है । यदि कुटुम्बी धन नहीं देखते हैं तो जहाँ-तहाँ निंदा करते फिरते हैं । बहिन भी धन के चक्र में फंसकर हलाहल विष सरीखी जान पड़ती है। निर्धन भाई से मारने में उसे भी जरा भी संकोच नहीं होता । हाय !!! समस्त परिग्रह के त्यागी, आत्मिक रस में लीन, मुनिराज भी इस दुष्ट धन की कृपा से चोर बन जाते हैं । इस धन के लिए पिता अपने प्यारे पुत्र को मार देता है । पुत्र भी अपने प्यारे पिता को यमलोक पहुँचा देता है। धन के पीछे भाई भाई को मार देता है । सेवक स्वामी का प्राणघात कर देते हैं। धन के लिए जीव अपने शरीर की भी परवाह नहीं करते । हाय !!! ऐसे धन को सहस्रवार धिक्कार है । वह सर्वथा हिंसामय है । इस चक्र में फँसे हुए जीव कदापि सुखी नहीं हो सकते । तथा इस प्रकार धन की बार-बार निंदा करते हुए मुझे यह पुन: अपने घर ले गया एवं वहाँ पहुँचकर यह कहने लगा २५३ नाथ कृपाकर ! मुझे कोई कथा सुनाइये। मुझे आपके मुख से कथा श्रवण की अधिक अभिलाषा है । उसके ऐसे वचन सुन मैंने कहा जिनदत्त ! तुम्हीं कोई कथा कहो हम तुम्हारे मुख से ही कथा सुनाना चाहते हैं बस फिर क्या था ? वह तो कथा द्वारा अपना भीतरी अभिप्राय बतलाना चाहता ही था इसलिए ज्यों ही उसने मेरे वचन सुने वह अति प्रसन्न हुआ और कहने लगा प्रभो! आपकी आज्ञानुसार मैं कथा सुनाता हूँ आप ध्यानपूर्वक सुनें और मुझे क्षमा करें। जंबूद्वीप में एक अतिशय मनोहर बनारस नाम की नगरी है । बनारस नगरी का स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रजा का पालक था राजा जितमित्र था । राजा जितमित्र के यहाँ एक अगदकाम नाम का राज वैद्य था । उसकी स्त्री धनदत्ता अतिशय रूपवती एवं साक्षात् कुबेर की स्त्री के समान थी। राज्य की ओर से वैद्य अगदंकार को जो आजीविका दी जाती थी उसी से वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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