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श्रणिक पुराणम्
कथ्यमाना कथा श्रेष्ठिन् श्रोतव्यात्र मयात्वया । यथा ते यांति विश्वासं मानसं मानसं गतं ॥१६५।।
कुछ दिन बाद अशुभ कर्म की कृपा से वैद्यवर अगदंकार का शरीरांत हो गया। वे धनमित्र और धनचन्द्र अनाथ सरीखे रह गये। राज्य की ओर से जो आजीविका बँधी थी राजा ने उसे भी उन्हें मुर्ख जान छीन ली। इसलिए उन दोनों भाइयों को और भी अधिक दुःख हुआ। एवं अतिशय अभिमानी किंतु अतिशय दुःखित वे दोनों भाई कुछ विद्या सीखने के लिए चम्पापुरी की ओर चल दिये।
उस समय चम्पापुरी में कोई शिवभूति नाम का ब्राह्मण निवास करता था। शिवभूति वैद्य विद्या का अच्छा ज्ञाता था इसलिए वे दोनों भाई उसके पास गये। एवं कुछ काल वैद्यक शास्त्रों का भली प्रकार अभ्यास कर वे भी वैद्य विद्या के उत्तम जानकार बन गये।
जब उन्होंने देखा कि हम अच्छे विद्वान् बन गए तो उन दोनों ने अपनी जन्म-भूमि बनारस आने का विचार किया एवं प्रतिज्ञानुसार वे वहाँ से चल भी दिये। मार्ग में वे आनन्दपूर्वक आ रहे थे अचानक ही उनकी दृष्टि एक व्याघ्र पर पड़ी जो व्याघ्र सर्वथा अंधा था और . आँखों के न होने से अनेक क्लेश भोग रहा था।
व्याघ्र को अंधा देख धनमित्र का चित्त दया से आर्द्र हो गया। उसने शीघ्र ही अपने छोटे भाई से कहा
प्रिय धनचन्द्र ! कहो तो मैं इस दीन व्याघ्र को उत्तम औषधियों के प्रताप से अभी सूझता कर दूं? यह विचारा आँखों के बिना बड़ा कष्ट सह रहा है । धनमिन की ऐसी बात सुन धनचन्द्र ने कहा
नहीं भाई इसे तुम सूझता मत करो। यह स्वभाव से दुष्ट है इसके फंदे में पड़कर अपनी जान बचनी भी कठिन पड़ जायेगी। दुष्टों पर दया करने से कुछ फल नहीं मिलता।
धनमित्र का काल सिर पर छा रहा था। उसने छोटे भाई धनचन्द्र की जरा भी बात न मानी और तत्काल व्याघ्र को सूझता बनाने के लिए तत्पर हो गया। जब धनचन्द्र ने देखा कि धनमित्र मेरी बात को नहीं मानता है तो वह शीघ्र ही समीपवर्ती किसी वृक्ष पर चढ़ गया और पत्तियों से अपने को छिपाकर सब दृश्य देखने लगा। धनमिन व्याघ्र की आँखों की दवा करने लगा औषधियों के प्रभाव से बात की बात में धनमित्र ने उसे सूझता बना दिया। किंतु दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते। ज्यों ही व्याघ्र सूझता हो गया उसने तत्काल ही धनमित्र को खा लिया और आनंद से जहाँ-तहाँ घूमने लगा। इसलिए हे प्रभो मुने! क्या व्याघ्र को यह उचित था जो कि वह अपने परमोपकारी दुःख दूर करने वाले धनमित्र को खा गया.? कृपया आप मुझे
कहें ? सेठ जिनदत्त के मुख से ऐसी कथा सुन मुनिराज ने कहाJain Education International For Private & Personal Use Only
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