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श्रेणिक पुराणम्
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कदाचित् राजगृह नगर में एक विशाल बौद्ध साधुओं का संघ आया। संघ के आगमन का समाचार एवं प्रशंसा महाराज के कानों में भी पड़ी। महाराज अति प्रसन्न हो शीघ्र ही रानी चेलना के पास गये। और उन साधुओं की प्रशंसा करने लगे।
प्रिये मनोहरे! हमारे गुरु अतिशय ज्ञानी हैं, तप की उत्कृष्ट सीमा को प्राप्त हैं। समस्त संसार उनके ज्ञान में झलकता है। और परम पवित्र हैं। मनोहरे ! जब कोई उनसे किसी प्रकार का प्रश्न करता है तो वे ध्यान में अतिशय लीन होने के कारण बड़ी कठिनता से उसका जवाब देते हैं। ध्यान से वे अपनी आत्मा को साक्षात् मोक्ष में ले जाते हैं। एवं वे वास्तविक तत्त्वों के उपदेशक हैं और दैदीप्यमान शरीर से शोभित हैं। महाराज के मुख से इस प्रकार बौद्ध साधुओं की प्रशंसा सुन रानी चेलना ने विनय से उत्तर दिया
कृपानाथ ! यदि आपके गुरु ऐसे पवित्र एवं ध्यानी हैं तो कृपा कर मुझे भी उनके दर्शन कराइये। ऐसे परम पवित्र महात्माओं के दर्शन से मैं भी अपने जन्म को पवित्र करूंगी। आप इस बात का विश्वास रखें यदि मेरी निगाह पर बौद्ध धर्म का सच्चापन जग गया और वे साधु सच्चे साध निकले तो मैं तत्काल बौद्ध धर्म को धारण कर लंगी। मझे इस बात का कोई आग्रह नहीं कि मैं जैन धर्म की ही भक्त बनी रहूँ। परन्तु बिना परीक्षा लिये दूसरे के कथन मात्र से मैं जैन धर्म का परित्याग नहीं कर सकती। क्योंकि हेयोपादेय के जानकार जो मनुष्य बिना समझे-बुझे दूसरे के कथन मात्र से उत्तम मार्ग को छोड़ दूसरे मार्ग पर चल पड़ते हैं वे शक्तिहीन मूर्ख कहे जाते हैं। और किसी प्रकार वे अपनी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकते हैं।
महारानी के ऐसे निष्पक्ष वचनों से महाराज को रानी का चित्त कुछ बौद्ध धर्म की ओर खिचा हुआ दीख पड़ा। एवं रानी के कथनानुसार उन्होंने शीघ्र ही एक मंडप तैयार कराया और वह ग्राम के बाहर शीघ्र ही थोड़े ही समय में बनकर तैयार हो गया।
मंडप तैयार होने पर इधर बौद्ध गुरुओं ने तो मंडप में समाधि लगाई। दृष्टि बंद कर, श्वास रोककर, काष्ट की पुतली के समान वे निश्चेष्ट बैठ गये। उधर रानी को भी इस बात का पता लगा वह शीघ्र पालको तैयार कराकर उनके दर्शनार्थ आई। एवं किसी बौद्ध गुरु से बौद्ध धर्म के विषय में जानने के लिए वह प्रश्न करने लगी॥८८-६८॥
वटु कश्चित्तदाऽवादीन्मातः सिद्धिं गता यतः । एतेषां देहिनो बौद्धा न वदंति लयं गताः ।। ६६ ।।
तन्मायानिरासार्थं मंडपेऽग्निमदीपयत् । सखीभिः कुशला तावदृष्ट्वा ते मंडपं ज्वलत् ॥१०॥
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