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श्रोशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
नाशयामासुरुन्निद्राश्चकिताश्चलसानसाः । राज्ञो निरूपयामासासुर्व त्तांतं विस्मयप्रदं ॥१०१॥ ततो मृगेक्षणा वेगादागत्य निजमंदिरं । हसंती कारयामास जिनधर्मप्रभावनां ॥१०२।। ततस्तां भूपतिः प्राप्या वोचदामर्चमानसः । कांते ? ऽकारि त्वया किं तदुष्टत्वं श्रेष्ठनिंदितं ॥१०३॥ विधीयते न भक्तिश्चेन्मारणे का मतिस्तव ।। किं च जैनेमते धर्मो दयाप्राधारन्यपूर्वकः ।।१०४।। हन्यमानेषु बौद्धेषु कृपा क्वास्ते मृगेक्षणे । वयं जैना वयं जैना इति किं प्रतिपाद्यते ।।१०।। एकिंद्रियादिजंतूनां रक्षणं जैनशासने । कथं विधीयते हिंसा पंचाक्षाणां च संकदा ।।१०६।। नाममात्रेण जैनत्वं त्वयास्ते प्राणवल्लभे । ननु साक्षात् त्रिशुद्धया च जैनत्वं जंतुरक्षकं ।।१०७।। आकर्पोति प्रहस्याशुजगौ वाचं शुभानना। शृणु वृत्तांतमेकं च भो कांत ! स्मयदायकं ॥१०८।।
रानी के प्रश्न को भली प्रकार सुनकर भी किसी भी बौद्ध गुरु ने उत्तर नहीं दिया। किन्तु पास ही ब्रह्मचारी बैठा था, उसने कहा-मात! यह समस्त साधुवृन्द इस समय ध्यान में लीन हैं। समस्त साधुओं की आत्मा इस समय सिद्धालय में विराजमान हैं। देहयुक्त भी इस समय वे सिद्ध हैं। इसलिए इन्होंने आपके प्रश्न का जवाब नहीं दिया है।
ब्रह्मचारी के ऐसे वचन सुन रानी चेलना ने और कुछ भी जवाब नहीं दिया। उन्हें मायादारी समझ, माया को प्रकट करने के लिए उसने शीघ्र ही मंडप में आग लगा दी। और उनका दृश्य देखने के लिए एक ओर खड़ी हो गई। एवं कुछ समय बाद राजमंदिर में आ गई।
फिर क्या था ? अग्नि जलते ही बौद्ध गुरुओं का ध्यान न जाने कहाँ चला गया। कुछ समय पहले तो वे निश्चल ध्यानारूढ़ बैठे थे, वे अब इधर-उधर व्याकुल हो दौड़ने लगे। और रानी का सारा कृत्य उन्होंने महाराज को जा सुनाया। बौद्ध गुरुओं के ये वचन सुन अबकी तो महाराज कुपित हो गये। वे यह समझ कि रानी ने बड़ा अनुचित काम किया, शीघ्र ही उसके पास आये और इस प्रकार कहने लगे
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