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श्रेणिक पुराणम्
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और रानी चेलना सानन्द राजगृह नगर में रहने लगे। कभी वे दोनों दंपती जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने लगे कभी मुनियों के उत्तमोत्तम गुणों का स्मरण करने लगे। कभी उन्होंने सठि महापुरुषों के पवित्र चरित्र से पूर्ण प्रथमानुयोग शास्त्र का स्वाध्याय किया। कभी लोक की लम्बाई-चौड़ाई आदि बतलाने वाले करणानुयोग शास्त्र को ये पढ़ने लगे। कभी-कभी अहिंसादि श्रावक और मुनियों के चरित्र को बतलाने वाले चरणानुयोग शास्त्र का उन्होंने श्रवण किया और कभी गुण द्रव्य और पर्यायों का वास्तविक स्वरूप बतलाने वाले स्यादस्ति स्यान्नास्ति इत्यादि सप्तभंगनिरूपक द्रव्यानयोग शास्त्रों को विचारने लगे। इस प्रकार अनेक शास्त्रों के स्वाध्याय में प्रवीण धर्म-संपदा के धारक समस्त विपत्तियों से रहित रति और कामदेव तुल्य भोग भोगने वाले बड़े ऋद्धि धारक मनुष्यों से पूजित रतिजन्य सुख के भी भले प्रकार आस्वादक वे दोनों दंपती इन्द्र-इन्द्राणी के समान सुख भोगने लगे और भोगों में वे इतने लीन हो गये कि उन्हें जाता हुआ काल भी न जान पड़ने लगा।
बहुत काल पर्यंत भोग भोगने पर रानी चेलना गर्भवती हुई। उसके गर्भ में सुषेणचर नामक देव ने आकर जन्म लिया । गर्भभार से रानोचेलना का मुख फीका पड़ गया। स्वाभाविक कृश शरीर और भी कृश हो गया। वचन भी वह धीरे-धीरे बोलने लग गई, गति भी मन्द हो गई। और आलस्य ने भी उस पर पूरा-पूरा प्रभाव जमा लिया॥१-१०॥
दुष्टदोहलकोद्भूत भावनातो बभूव सा । कृशांगा क्षीणभूषाढ्या निशांते द्यौवितारिकाः ॥ ११ ॥ तदप्राप्तां च तां वीक्ष्य गतदीप्तिनराधिपः ।। गदतिस्म शुभे भद्रे विशिष्टनयनोत्सवे ॥ १२ ॥ काऽस्ति ते हृदि चिंता च सर्वगात्रविदाहिनी । इति संवादिता राज्ञी न ब्रूते च यथाकथम् ॥ १३ ॥ महाग्रहेण भूपेन पुनः संवादिता जगौ। मृगाक्षी गंदमामंदाक्षरासंवाष्पवादिनी ॥ १४ ॥ नाथ किं जीवनेनैव मम दुर्मानसात्मनः । दुभ्रूणधारणाज्ज्ञज्ञे दुर्वांछा प्राणहारिणी ॥ १५॥ वचनैः कथितुं शक्यां नो कथं कथयामि ताम् । तथाप्याख्यामि नाथाद्य . तवाग्रहवशाद्विभोः ॥ १६ ॥ वक्षः स्थलं विदार्यांशु लोहितस्येक्षितुं तव । वांछास्ति मे नराधीश कथं प्राप्या दुरावहा ।। १७ ।।
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