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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
नहीं किया है। इनकी हम दोनों पर कृपा भी एक-सी जान पड़ती है। महाराज एकदम अवाक् रह गये । तत्काल उनका मन संकल्प-विकल्पों से व्याप्त हो गया । वे खिन्न हो ऐसा विचारने लगे
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यशोधर धन्य हैं। गले में सर्प पड़ने पर अनेक पीड़ा सहन करते हुए भी इन्होंने उत्तम क्षमा को न छोड़ा। रानी चेलना ने गले से सर्प निकाल इनकी भक्ति भाव से सेवा की। और मैंने इनके गले में सर्प डाला। इनकी अनेक प्रकार से हँसी की । एवं इनकी कुछ भी भक्ति न की । तो भी मुनिराज का भाव हम दोनों पर समान ही प्रतीत हो रहा है। हाय ! मैं बड़ा नीच नराधम हूँ । क्योंकि मैंने ऐसे परम योगी की यह अवज्ञा की। देखो, कहाँ तो परम पवित्र यह मुनिराज का शरीर ! और कहाँ मैं इसका विघातेच्छु ? हाय, मुझे सहस्र बार धिक्कार है । संसार में मेरे समान कोई वज्रपाती न होगा । अरे, अज्ञानवश मैंने ये क्या अनर्थ कर डाले ? अब कैसे इन पापों से मेरा छुटकारा होगा ? हाय, मुझे अब नियम से नरक आदि घोर दुर्गतियों में जाना पड़ेगा ! अब नियम से वहाँ के दुःख भोगने पड़ेंगे ! अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? इस कमाये हुए पाप का पश्चात्ताप कैसे करूँ ? अब पाप - निवृत्यर्थ मेरा उपाय यही श्रेयस्कर होगा कि मैं खड्ग से अपना सिर काटूं ? और मुनिराज के चरणों में गिर समस्त पापों का शमन करूँ ।
कृपासिंधो ! मेरे अपराध क्षमा करिये। मुझे दुर्गति से बचाइये । तथा इस प्रकार विचार करते-करते मारे लज्जा के महाराज नतमस्तक हो गये । दुःख के कारण उनकी आँखों से अश्रुबिंदु टपक पड़ी ! ॥२- १०॥
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तावद्बोधबलेनासौ मत्वा तत्स्वांतजं जगौ । राजन्विरूपकं नैवं चिंतनीयं त्वया हृदि ॥ ११ ॥
इत्थं कृते नृपाधीश न याति निजकिल्बिषं । आयाति किल्बिषं धीमन् स्वहत्याऽशर्मरूपया ॥ १२ ॥ करपत्रादि घातेन ये कुर्वंति मृतिशठाः । ते वै नारकतिर्यक्षु संबोभुवति किल्बिषात् ।। १३ ।। विषहेमादिपानेन प्राणास्त्यजंति अमुत्राशभुंजिं नानाभेदं निरंकुशं ।। १४ ।। स्वघातो नैव कर्त्तव्यः पंकनाशादिसिद्धये । रूपादिप्राप्तये चैव प्राणिभिहितमिच्छुभिः ।। १५ ।।
मानवाः ।
विधेहि पंकनाशाय निंदा गहीं नराधिप । प्रायश्चित्तं विशेषेणैनोवृ दविधिदूरकृतं ॥ १६ ॥
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