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श्रेणिक पुराणम्
आ गया एवं उस दुष्ट ने उस उपकारी तपस्वी को तत्काल चीरकर मार दिया । कृपानाथ ! अब आप ही कहें परोपकारी उस तपस्वी के साथ क्या हाथी का व बर्ताव योग्य था ? मैंने कहा ।
जिनदत्त ! वह हाथी बड़ा दुष्ट था । दुष्ट ने जरा भी अपने उपकारी की दया न की । देखो जो मनुष्य दूसरे के उपकार को भूल जाते हैं उन्हें अनेक वेदना सहनी पड़ती हैं। नरकादि गतियाँ उनके लिए सदा तैयार रहती हैं। एवं बुद्धिमान लोग स्वभाव से हिंसक और उपकारी के हिंसक में उतना ही भेद मानते हैं जितना राई और पर्वत में मानते हैं। मैं तुम्हारी कथा सुन चुका। मैं भी एक दूसरी कथा कहता हूँ तुम उसे ध्यानपूर्वक सुनो
इस पृथ्वी पर एक चम्पापुरी नाम की सर्वोत्तम नगरी है। किसी समय कुबेरपुरी के तुल्य उस चम्पापुरी में एक देवदत्ता नाम की वैश्या रहती थी । देवदत्ता अतिशय सुन्दरी थी यदि उसके लिए देवांगना कह दिया जाता तो भी उसके लिए कम था । उसके पास एक पालतू तोता था वह उसे अपने प्राणों से भी प्यारा समझती थी ।
कदाचित् रविवार के दिन तोते के लिए प्याले में शराब रखकर वह तो किसी कार्यवश भीतर चली गई और इतने में ही एक लड़की वहाँ आई उसने उस शराब में विष डाल दिया और शीघ्र वहाँ से चली गई । देवदत्ता को इस बात का पता नहीं लगा वह अपने सीधे स्वभाव से बाहर आई और तोता को शराब पिलाने लगी। किंतु तोता वह सब दृश्य देख रहा था इसलिये अनेक बार प्रयत्न करने पर भी उसने शराब में चोंच तक न डाली वह चुपचाप बैठा रहा । देवदत्ता जबरन उसे शराब पिलाने लगी तो भी उसने न पिया । देवदत्ता जब और जबरन पिलाने लगी तो वह चिल्लाने लगा इसलिये देवदत्ता को क्रोध आ गया और उसने उसे तत्काल मारकर फेंक दिया। अब हे जिनदत्त ! तुम्हीं कहो देवदत्ता का वह अविचारित काम क्या योग्य था ? जिनदत्त ने उत्तर दिया उसी समय एक कुत्ता ने आकर उस विष मिश्रित शराब में मुँह डाला और बार-बार पीने लगा फिर क्या था ? उस विष मिश्रित शराब के नशे से वह कुत्ता शीघ्र ही जमीन पर गिर गया, यह देख देवदत्ता बहुत पछताई ।।२१८ - २३१।।
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( तदा श्वनः समागत्य लिह्यमानो मुहुर्मुहुः । पतद्भ ू म मौ तया वीक्ष्य पश्चात्तापहता च सा ) ॥२३२॥ उरजेत्थमिदं युक्तमविचार्यं विधातु मा । तस्याभवेन्न वासौपिजगौ नोयुक्तमेव च ।।२३३॥
मज्जं कथानकं नाथ श्रोतव्यं श्रुतितोषदम् । वाराणस्यां प्रसिद्धायां जांबूनदसुधामनि ॥ २३४॥
वसुदत्ताभिधो वैश्यो धनेभ्यो वसति स्फुटं । स्वर्णमुक्ताफलादीनां व्यवहारी च तुंदुलः ||२३५||
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