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________________ पेणिक पुराणम् १८१ अन्यदा यौवनैः पूर्णा कनत्कनककंकणाम् । हारिहारसमाकीर्णां विस्तीर्णवसनावहाम् ॥१२३॥ नागदत्तां समालोक्याऽरोदीत्सागरदत्तिका । हा हा पुत्रि! क्व सौभाग्यं हारूपं हा कला क्व च ॥१२४॥ हा सुते देवकन्याभे गतिस्ते क्व मनोरमा । क्व नागो भीषणो रूपीपादहस्तातिगो शुभः ॥१२५॥ दुर्दमं चेष्टितं ज्ञेयं विधेर्लोके सुरेश्वरैः । अन्यथा चितितं पूर्वं विधिना चान्यधा कृतं ॥१२६॥ हाकार मुखरां वाष्प पूरास्यां वीक्ष्य मातरं । रुदंती तनुजा वोचद्विलापः किं विधीयते ॥१२७॥ कुछ दिन बाद श्रेष्ठि सागरदत्त के भाग्यानुसार एक पुत्र जो कि सर्पकी आकृति का धारक एवं भयावह उत्पन्न हुआ था। और उसका नाम वसुमिन रखा गया। तथा श्रेष्ठ समुद्रदत्त की सेठानी सागरदत्ता के यहाँ एक पुत्री उत्पन्न हुई। जो पुत्री चन्द्रवदना, मनोहरा, सुवर्ण वर्णा एवं अनेक गुणों की आकर थी। और उसका नाम नागदत्ता रखा गया। कदाचित् कुमार और कुमारी ने यौवनावस्था में पदार्पण किया। इन्हें विवाह के सर्वथा योग्य जान बड़े समारोह से दोनों का विवाह किया गया। एवं विवाह के बाद वे दोनों दंपती सांसारिक सुख का अनुभव करने लगे। माता का पुत्री पर अधिक प्रेम रहता है। यदि पुत्री किसी कष्टमय अवस्था में हो तो माता अति दु:ख मानती है। कदाचित् पुत्री नागदत्ता पर सागरदत्ता की दृष्टि पड़ी। उसे हार आदि उत्तमोत्तम भूषणों से भूषित, कमलाक्षी कनकवर्णी देख वह इस प्रकार मन-ही-मन रुदन करने लगी। पुनी! कहाँ तो तेरा मनोहर रूप, सौभाग्य, उत्तम कुल एवं मनोहर गति ? और कहाँ भयंकर शरीर का धारक, हाथ-पैर रहित एवं अशुभ तेरा पति नाग? हाय दुर्दैव ! तुझे सहस्र बार धिक्कार है। तूने क्या जानकर यह संयोग मिलाया। अथवा ठीक है तेरी गति विचित्र है। बड़े-बड़े देव भी तेरी गति के पते लगाने में हैरान हैं। तब हम कौन चीज हैं। हाय, विचारा तो कुछ और था, हो कुछ और ही गया। माता को इस प्रकार रुदन करती देख पुत्री नागदत्ता का भी चित्त पिघल गया उसने शीघ्र ही विनय से सांत्वनापूर्वक कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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