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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
श्रेष्ठिन् सागरदत्ताख्य यदि पुत्रो भवेत्तव । भागधेयात्तथा पुत्री भवेन्मे दैवयोगतः ॥११७॥ अन्योन्यं भवितव्यो वै विवाहो निश्चयेन भो।
विपर्ययेऽपि कर्त्तव्यं तथैव स्नेहसिद्धये ॥११८॥ इसी जम्बूद्वीप में मनोहर-मनोहर गांवों में शोभित, धनिक एवं विद्वानों से भूषित, एक वत्स देश है । वत्स देश में एक कौशांबी नगरी है। जो कौशांबी उत्तमोत्तम बाग-बगीचों से, देवतुल्य मनुष्यों से स्वर्गपुरी की शोभा को धारण करती है। कौशांबीपुरी का स्वामी जो नीतिपूर्वक प्रतापालक, कल्पवृक्ष के समान दाता जिसका नाम राजा वसुपाल था। राजा वसुपाल की पटरानी का नाम अश्विनी था। रानी अश्विनी स्त्रियों के प्रधान गुणों की आकर, मृगनयना, चन्द्रवदना एवं रमणी रत्न थी। सागरदत्त अपार धन का स्वामी था। अनेक गुणयुक्त होने के कारण राज्य-मान्य और विद्वान था। सागरदत्त की स्त्री का नाम वसुमती था। वसुमती रात्री विकसी कमलों को चाँदनी के समान सदा सागरदत्त के मन को प्रसन्न करती रहती थी। मुख से चन्द्र शोभा को भी नीचे करनेवाली थी। एवं प्रत्येक कार्य को विचारपूर्वक करती थी।
। उसी समय कौशांबीपुरी में समुद्रदत्त नाम का श्रेष्ठ भी निवास करता था। समुद्रदत्त सम्पन्न धनी था। धर्मात्मा एवं अनेक गुणों का भंडार था। श्रेष्ठि समुद्रदत्त की प्रिय भार्या सागरदत्ता थी जो कि अतिशय रूपवती, गुणवती एवं पतिभक्ता थी।
___ कदाचित् सेठी सागरदत्त और समुद्रदत्त आनंदपूर्वक एक स्थान में बैठे थे। परस्पर में और भी स्नेह वद्धयर्थ सेठी समद्रदत्त ने सागरदत्त से कहा-प्रिय सागरदत्त! आप एक काम करें। यदि भाग्यवश आपके पुत्र और मेरे पुत्री अथवा मेरे पुत्र और आपके पुत्री होवे तो उन दोनों का आपस में विवाह कर देना चाहिए जिससे हमारा और आपका स्नेह दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाय। समुद्रदत्त के ऐसे वचन सुन सागरदत्त ने कहा-जो आप कहते हैं, सो मुझे मंजूर है। मैं आपके वचनों से बाहर नहीं हूँ॥१०६-११८।।
प्रतिपन्नं तथा ताभ्यां तदा स्नेहकृते मुदा । कियत्काले सुतो जातो वसुमत्यां च सागरात् ॥११६॥ वसुमित्राभिधः सर्परूपः साध्वसदायकः ।। अन्ययोस्तनुजा जाता नागदत्ता च देवत: ।।१२०॥ कनत्कनकदेहाभा विकसत्पद्मलोचना । संपूर्णविधुसद्वक्त्रा सद्रूपा सद्गुणाकुला ॥१२१।। संपूर्णे यौवने जातस्तयोर्वाक्यनिबंधनात् । विवाहश्च महाभूत्या नानाक्षणपरात्मनोः ।।१२२।।
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