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श्रेणिक पुराणम्
अहंकारवशादेष तथापि न च याचते । किंचित्संवाह्यमानोऽपि जनविस्मितचित्तकः ।। ३८ ।।
सुन्दर आकार के धारक असाधारण उत्तम गुणों से मण्डित कुमार श्रेणिक को हाथी पर चढ़े हुए देखकर महाराज वसुपाल मन में अति हर्षित हुए। और बड़ी प्रीति एवं हर्ष से उन्होंने कुमार से कहा। हे वीरों के सिरताज ! हे अनेक पुण्यफलों के भोगनेवाले ! कुमार जिस बात की तुम्हें इच्छा हो शीघ्र ही मुझे कहो। हे उत्तमोत्तम गुणों के भंडार कुमार! शक्त्यनुसार मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा। किन्तु महाराज के सन्तोषभरे वचन सुनकर अन्य मनुष्यों द्वारा कुछ मांगने के लिए प्रेरित भी कुमार ने लज्जा एवं अहंकार से कुछ भी जवाब नहीं दिया, महाराज के सामने वे चुपचाप ही खड़े रहे ॥३६-३८॥
इंद्रदत्तस्तदा ज्ञात्वा तच्चित्तस्थं पुनर्जगौ । भो भूप ! वरमस्मै त्वं यदि दित्ससि निश्चितं ।। ३६ ॥ सप्तघस्र महादानमभयाख्यं पुरे वरे । देशे सर्वत्र देहित्वं घोषणापूर्वकं वरं ॥ ४० ॥ संतुष्टमनसा तेन तत्तथा प्रतिपद्य च। चक्रे सर्वत्र तद्धोषो दान सूचक उन्नतः ।। ४१ ।।
सेठी इन्द्रदत्त भी ये सब बातें देख रहे थे। उन्होंने शीघ्र ही कुमार के मन के भाव को समझ लिया और इस भाँति महाराज से निवेदन किया महाराज! यदि आप कुमार के काम को देखकर प्रसन्न हुए हैं। और उनकी अभिलाषा पूर्ण करना चाहते हैं तो एक काम करें सात दिन तक इस नगर और देश में सब जगह पर आप अभयदान की ड़योंडी पिटवा दें। सेठी इन्द्रदत्त के .ऐसे कुमार के अनुकूल वचन सुन राजा वसुपाल अति संतुष्ट हुए और उन्होंने बेधड़क कह दिया। आपने जो कुमार के अनुकूल कहा है वह मुझे मंजूर है। मैं सात दिन तक नगर एवं देश में सब जगह अभयदान के लिए तैयार हैं। तथा ऐसा कहकर उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अभयदान के लिए नगर एवं देश में सर्वत्र डंका भी पिटवा दिया ।।३६-४१॥
तदा सदोहदा राज्ञी परिपूर्णमनोरथा । रेजे नवीनसंकाया वल्लीव नवपर्णिका ॥ ४२ ॥ सानंदा सा ततो नंदा पूर्णमासा मृगेक्षणा।। शुभे लग्ने शुभे वारे सुनक्षत्रे सुवासरे ॥ ४३ ॥ शुभयोगे सुतं जज्ञे विकसत्कुमुदेक्षणं । नंदश्री नंदरोमांचा संत्रस्त सुमृगीदृशा ॥४४॥
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