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श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम्
राजसेवको! तुमने फल माँगे सो ठीक है। जितने फलों की तुम्हें इच्छा हो, उतने ही फल दे सकता हूँ। किंतु यह कहो कि तुम ठण्डे फल लेना चाहते हो या गरम? क्योंकि मेरे पास फल दोनों तरह के हैं। कुमार के ऐसे विचित्र वचन सुन समस्त राजसेवक एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। उन्होंने विचारा कि क्या केवल गरम और केवल ठण्डे भी फल होते हैं ? हमें तो यह बात आज तक सुनने में नहीं आई कि फल गरम भी होते हैं। जितने फल खाये हैं सब ठण्डे ही खाये हैं। और ठण्डे ही फल सने हैं, एक। दूसरे, एक वक्ष पर गरम और ठण्डे दो प्रकार के फल हों यह सर्वथा विरुद्ध जान पड़ता है। तथा क्षणेक ऐसा दृढ़ निश्चय कर, और कुमार को अब उत्तर देना जरूर है,यह समझ उन्होंने कहा
महोदय कुमार! हमें आपके वचन अति प्रिय मालूम पड़ते हैं। कृपाकर लाइए हमें गरम ही फल दीजिए। राजसेवकों के ये वचन सुन कुमार ने कुछ फल तोड़े। और उन्हें आपस में घिसकर बाल में दूर पटक दिया । और कह दिया-देखो, फल वे पड़े हैं, उठा लो !
कुमार की आज्ञा पाते ही जिधर फल पड़े थे, राजसेवक उसी ओर दौड़े। ज्योंही उन्होंने बाल से फल उठाकर फूंकना चाहा त्योंही कुमार ने कहा-देखो ! फल होशियारी से फूंकना, ये फल गरम हैं । जो बिना विचारे फूंका तो तुम्हारी सब दाढ़ी-मूंछ जल जायेंगी।
कुमार के ऐसे वचन सुनते ही राजसेवक अपने मन में बड़े लज्जित हुए। वे बार-बार टकटकी लगाकर कुमार की ओर देखने लगे। कुमार की इस चतुरता को देखकर राजसेवकों ने निश्चय कर लिया कि हो न हो यही सबमें चतुर जान पड़ता है ? महाराज की बातों का उत्तर भी इसी ने दिया होगा ? ॥१५१-१६२॥
ततो व्याघुट्य ते सर्वे प्रणिपत्य नराधिपम् । कुमारस्य स्वरूपं चाशेषं भेणुर्न पोत्तमम् ।।१६३।। ततो विज्ञाय भूमीशस्तस्वरूपं सुधीधनं । शंसां चक्रे मनीषायास्तस्य संतुष्टचेतसः ।।१६४।। दत्तोऽन्यदा महादेशो राज्ञेत्यानयनकृते । तत्शेमुषीपरीक्षायै सस्मयेन स्वभावतः ॥१६॥ मार्गमुन्मार्गमावाहोरात्रं च त्वया शुभ । तृप्तत्वं च क्षुधार्त्तत्वं वीताद्यारोहणं तथा ॥१६६॥ पादचालनमावागंतव्यं मम पत्तने । इत्याकर्ण्य समेत्यवा भूवन् विप्राः समाकुलाः ॥१६७।।
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