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श्रेणिक पुराणम्
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क्वैतेषां सिद्धसंस्थाने गमनं प्राणिदुर्लभं । अनृतं भाति मे चित्ते विना जैनं न संशयः ॥१४०॥
पुत्री के इन विनय वचनों ने तो सागरदत्ता को रुदन में और अधिक सहायता पहुँचाई अब उसकी आँखों से अविरल आँसुओं की झड़ी लग गई। प्रथम तो उसने नागदत्ता के प्रश्न का कुछ भी जवाब न दिया। किंतु जब उसने नागदत्ता का अधिक आग्रह देखा तो बडे कष्ट से वह कहने लगी-पुत्री ! मुझे और किसी की ओर से दुःख नहीं किंतु स युवा अवस्था में तुझे पतिजन्य सुख से सुखी न देख मैं रोती हूँ। यदि तेरा पति कुरूप भी होता, पर मनुष्य तो होता, मुझे कुछ दुःख न होता परंतु तेरा पति नाग है। वह न कुछ कर सकता और न धर ही सकता है इसलिए मेरे चित्त को अधिक संताप है। माता के ये वचन सुन प्रथम तो नागदत्ता हसने लगी, पश्चात् उसने विनय से कहा
मात! तू इस बात के लिए ज़रा भी खेद मत कर। यदि तू नहीं मानती है तो मैं अपना सारा हाल तुझे सुनाती हूं। तू ध्यानपूर्वक सुन–मेरे शयनागार में एक संदूक रखा है जिस समय दिन हो जाता है उस समय तो मेरा पति नाग बन जाता है। और दिन-भर नागरूप में मेरे साथ खेल-किलोल करता है। और जब रात हो जाती है तो वह उस संदूक से निकल उत्तम मनुष्यआकार बन जाता है। एवं मनुष्य रूप से रात-भर मेरे साथ भोग भोगता है। पुत्री के मुख से यह विचित्र घटना सुन सागरदत्ता आश्चर्य करने लगी उसने शीघ्र ही नागदत्ता से कहा
नागदत्ते ! यदि यह बात सत्य है तो तू एक काम कर उस संदूक को तू किसी परिचित एवं अपने अभीष्ट स्थान में रख । और यह वृत्तांत मुझे दिखा। तब मैं तेरी बात मानूंगी
पुत्री नागदत्ता ने अपनी माता को आज्ञा स्वीकार कर ली। तथा किसी निश्चित दिन नागदत्ता ने उस संदूक को ऐसे स्थान पर रखवा दिया जो स्थान उसकी माँ का भी भली प्रकार परिचित था। और माँ को इशारा कर वह मनुष्याकार अपने पति के साथ भोग भाने लगी।
बस फिर क्या था? हे महाराज ! जिस समय सागरदत्ता ने उस संदूक को खुला देखा, तो उसने उसे खोखला समझ शीघ्र जला दिया। और वह वसुमित्र फिर सदा के लिए मनुष्याकार बन गया। उसी प्रकार हे दीनबंधो! किसी ब्रह्मचारी से मुझे यह बात मालम हुई कि बौद्ध गुरुओं की आत्मा इस समय मोक्ष में हैं। ये इनके शरीर इस समय खोखले पड़े हैं। मैंने यह जान कि बौद्ध गुरुओं को अब शारीरिक वेदना न सहनी पड़े, आग लगा दी क्योंकि इस बात को आप भी जानते हैं। जब तक आत्मा के साथ इस शरीर का संबंध रहता है। तब तक अनेक प्रकार के कष्ट उठाने
हैं। किंतु ज्योंही शरीर का संबंध छट जाता है त्योंही सब दःख भी एक ओर किनारा कर जाते हैं। फिर वे आत्मा से कदापि संबंध नहीं करते पाते। नाथ ! शरीर के सर्वथा जल जाने से अब समस्त गुरु सिद्ध हो गये। यदि उनका शरीर कायम रहता तो उनकी आत्मा सिद्धालय से लौट आती। और संसार में रहकर अनेक दुःख भोगती। क्योंकि संसार में जो इन्द्रियजन्य सुख भोगने में आते हैं उनका प्रधान कारण शरीर है यह बात अनुभवसिद्ध है कि इन्द्रिय सुख से अनेक
पडते
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