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श्रेणिक पुराणम्
इसी मणिवत देश में एक अतिशय रमणीय दारा नाम का नगर है । दारा नगर के ऊँचेऊँचे महल सदा चन्द्रमंडल को भेदन किया करते हैं । उसकी स्त्रियों के मुख चन्द्रमा की कृपा से अन्धकार सदा दूर रहता है इसलिए वहाँ दीपक आदि की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। जिस समय वहाँ की स्त्रियाँ अटारियों पर चढ़ जाती हैं उस समय चन्द्रमा उनका चूड़ामणि तुल्य जान पड़ता है। और तारागण चूड़ामणि में जड़े हुए सफेद मोती सरीखे मालूम पड़ते हैं ।
दारा नगर का स्वामी भली प्रकार नीति- कला में निष्णात क्षत्रियवंशी में राजा मणिमाली था। मेरी स्त्री जो कि अतिशय गुणवती थी, गुणमाला से उत्पन्न मेरा एक पुत्र था, उसका नाम मणिशेखर था । और वह अतिशय नीतियुक्त था। मैं भोगों में इतना मस्त था कि मुझे जाते हुए काल का भी ज्ञान न था । मैं सदा जिनधर्म का पालन करता हुआ आनंद से राज्य करता
था ।
कदाचित् मैं आनंद से बैठा था। मेरी पटरानी मेरे केशों को सँभाल रही थी। अचानक ही उसे मेरे सिर में एक सफेद बाल दीख पड़ा। वह एकदम अचम्भे में पड़ गई । और कहने लगी - हाय, जिस यमराज ने बड़े-बड़े चत्रवर्ती नारायण प्रति नारायणों को अपना कवल बना लिया उसी यमराज का दूत यहाँ आकर भी प्रकट हो गया। बस !!! ज्योंही मैंने रानी गुणमाला के ये वचन सुने मेरी आनंद तरंगें एकदम शांत हो गईं। मेरे मुख से उस समय ये ही शब्द निकले -
प्रिये ! समस्त लोक में भय उत्पन्न करनेवाला वह यमदूत कहाँ है ? मुझे भी शीघ्र दिखा | मैं उसे देखना चाहता हूँ । मेरे वचन सुनते ही रानी ने बाल शीघ्र उखाड़ लिया । और मेरी हथेली पर रख दिया । ज्योंही मैंने अपना सफेद बाल देखा । अपना काल अति समीप जान मैं उसी समय राज्य से विरक्त हो गया। जो विषयभोग कुछ समय पहले मुझे अमृत जान पड़ते थे वे ही हलाहल विष बन गये । अपने प्यारे पुत्र और स्त्रियों को भी अपना शत्रु समझने लगा। मैंने शीघ्र ही चन्द्रशेखर को बुलाया - और राज्य कार्य उसे सौंप तत्काल वन की ओर चल पड़ा। वन में आते ही मुझे मुनिवर ज्ञानसागर के दर्शन हुए। मैंने शीघ्र ही अनेक राजाओं के साथ मुनि दीक्षा धारण कर ली। जैन सिद्धान्त के पढ़ने में अपना मन लगाया । एवं जब मैं जैन सिद्धान्त का भली प्रकार ज्ञाता हो गया और उग्र तपस्वी बन गया तो मैं सिंह के समान इस पृथ्वी - मंडल पर अकेला ही विहार करने लगा - ॥१३-२४॥
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विहरन्नन्यदा ध्यानसिद्धयै स्थितस्तत्र
राजन्नुज्जयिन्याः श्मशानके ।
शवशय्यासमाश्रितः ।। २५॥
कृतकौतुकः ॥ २६ ॥
तावत्तत्र समायातः कौलिकः सिद्धमंत्रकः । वेतालाख्य महाविद्या सिद्धये कुणपं मम सद्गात्रं मत्वा मंत्रोद्यतः स च । नरभूनि पयो रम्य मानयामास तंदुलान् ॥ २७ ॥
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