SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीशुभचन्द्राचार्यवर्येण विरचितम् निरूप्येति स्थिता राज्ञी तूष्णीगभूयता च सा । बभाण राज्ञि ते राजा रोचते यच्च तत्कुरु ॥ ४० ॥ असातं मा विधेहि त्वं विराम इति भूपतौ । सोत्कंठिता शुभा राज्ञी जिनधर्म चकार च ।। ४१॥ जिनार्चा पूजयामास क्षणेन महता समम् । चतुर्दश्यां कदाचिच्च रात्रिजागरणं व्यधात् ॥ ४२ ।। नृत्येन वाद्यनादेन गीतेन वंशवादनः । कुर्वंती जिनकल्याणं पठंती सा जिनागमं ॥ ४३ ।। निशांतं जिनसद्धर्ममयं चक्रे स्वबुद्धितः । पंचसन्नुतिवाचालं सद्दयापेशलं शुभम् ।। ४४ ॥ भगवंतः समाकर्ण्य तथा तं व्याकुलं नृपम् । भेणुः संमर्षसंदीप्ता भोभूभद्भो विशांपते ॥ ४५ ॥ रानी चेलना के मुख से इस प्रकार जैन धर्म का स्वरूप ग्रहण कर महाराज निरुत्तर हो गये। उन्होंने और कुछ न कहकर महारानी से यही कहा-प्रिये ! जो तुम्हें श्रेयस्कर मालूम पड़े, वही काम करो। किंतु अपने चित्त पर किसी प्रकार की ग्लानि न लाओ। मैं यह नहीं चाहता कि तुम किसी प्रकार से दु:खित रहो। __ महाराज के मुख से ऐसा अनुकूल उत्तर पाकर रानी चेलना अति प्रसन्न हुई। अब रानी चेलना निर्भय हो जैन धर्म की आराधन करने लगी। कभी तो रानी चेलना ने भक्ति-भाव से भगवान का पूजन करना प्रारंभ कर दिया और कभी वह अष्टमी,चतुर्दशी आदि पर्यों में उपवास और रात्रि-जागरण भी करने लगी। तथा नत्य और उत्तमोत्तम गद्य पद्यमय गायनों से भी उस भगवान की स्तुति करनी प्रारंभ कर दी। जैनशास्त्रों का वह प्रतिदिन स्वाध्याय करने लगी। रानी चेलना को इस प्रकार धर्म पर आरूढ़ देख समस्त रनिवास उसके धर्मात्मापने की तारीफ करने लगा। यहाँ तक कि गिनती के ही दिनों में रानी चेलना ने समस्त राजमंदिर जैन धर्ममय कर दिया। कदाचित् बौद्ध साधुओं को यह पता लगा कि रानी चेलना जैन धर्म की परम भक्त है। राजमंदिर को उसने जैन धर्म का परम भक्त बना दिया है। और नगर एवं देश में वह जैन धर्म प्रचारार्थ शक्ति-भर प्रयत्न कर रही है। वे शीघ्र ही दौड़ते-दौड़ते राजा श्रेणिक के पास आये। और क्रोध में आकर महाराज श्रेणिक से इस प्रकार कहने लगे ॥४०-४५।। राज्या विधीयते जैनः स्वयं धर्मः कथंचन । कार्यते चापरेषां वै धर्मो जीवदयामय: ।। ४६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy