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________________ श्रेणिक पुराणम् परीषहसहाः कांतत्यक्तवस्त्रादिविग्रहाः । वंदनीयाः सतां पूज्या नाऽन्ये लोभादिमंडिताः ॥ ३६ ।। अहिंसा परमो धर्मः स्वर्गमोक्षादिसाधकः । अहिंसा परमं ज्ञानमहिंसा परमं तपः ।। ३७ ।। पूर्वं जीवादिसद्भदे मत्वा तद्रक्षणं ततः । कार्य सुकृतसंसिद्ध्यै कांत ! स्वस्य हिताप्तये ॥ ३८ ॥ न जहामि वृषं जैनं प्राणांते प्राणवल्लभ ! धर्मादमुत्र सातं स्याज्जिनधर्मादृतेनहि ।। ३६ ।। प्राणनाथ ! आप तो बौद्ध धर्म की इतनी तारीफ कर रहे हैं सो बौद्ध धर्म इतनी तारीफ के लायक है ही नहीं। उससे जीवों का ज़रा भी हित नहीं हो सकता। दुनिया में सर्वोत्तम धर्म जैनधर्म ही है। जैन धर्म छोटे-बड़े सब प्रकार के जीवों पर दया के उपदेश से पूर्ण है। इसका वर्णन केवली भगवान के केवलज्ञान से हुआ है। जो भव्य जीव इस परम पवित्र धर्म की भक्तिपूर्वक आराधना करता है। नियम से उसे आराधना के अनुसार फल मिलता है। तथा हे कृपानाथ! इस जैनधर्म में क्षधा, तृषा आदि अठारह दोषों से रहित, समस्त प्रकार के परिग्रहों से विनिर्मुक्त केवलज्ञानी एवं जीवों को यथार्थ उपदेशदाता तो आप्त कहा गया है। और भली प्रकार परीक्षित जीव, अजीव, आश्रव आदि सात तत्त्व कहे हैं। प्रमाण नयनिक्षेप आदि संयुक्त इन सप्त तत्त्वोंका वर्णन भी केवली भगवान की दिव्य ध्वनि से हुआ है। ये सातों तत्त्व कथंचित् नित्यत्व और कथंचिा अनित्यत्व इत्यादि अनेक धर्म स्वरूप हैं। यदि एकांत रीति से ये सर्वतत्त्व सर्वथा नित्य और अनित्य ही माने जाएँ तो इनके स्वरूप का भली प्रकार परिज्ञान नहीं हो सकता। और हे स्वामिन् ! जो साधु निग्रंथ, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि उत्तमोत्तम गुणों के धारी, मिथ्या अन्धकार को हटानेवाले, राग, द्वेष, मोह आदि शत्रुओं के विजयी, बाह्याभ्यंतर दोनों प्रकार के तप से विभूषित भला प्रकार पारषहाक सहन करनेवाले एव नग्न दिगबर हैं। वे इस नागम में गुरु माने गये हैं। तथा भो प्रभो! जिससे किसी प्रकार के जीवों के प्राणों को त्रास न हो ऐसा इस जैन सिद्धांत में अहिंसा परम धर्म माना गया है। इसी धर्म की कृपा से जीवों का कल्याण हो सकता दयासिंधो! यह थोड़ा-सा जैन धर्म का स्वरूप मैंने आपके सामने निवेदन किया है। इसका विस्तारपूर्वक वर्णन सिवाय भगवान केवली के दूसरा कोई नहीं कर सकता। अब आप ही कहें ऐसे परम पवित्र धर्म का किस रीति से परित्याग किया जा सकता है। मेरा विश्वास है जो जीव इस जैन धर्म से विमुख एवं घृणा करनेवाले हैं। वे कदापि भाग्यशाली नहीं कहे जा सकते ॥२६-३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002771
Book TitleShrenika Charitra
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorDharmchand Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size18 MB
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