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श्रेणिक पुराणम्
को कठिन समझ दुःखित हो रही हो। एवं अपने शरीर को बिना प्रयोजन सुखा रही हो सो सर्वथा व्यर्थ है। तथा मधुर भाषिणी एवं शुभांगी नन्दश्री को ऐसा आश्वासन देकर भली प्रकार समझाबुझाकर कुमार श्रेणिक किसी वन की ओर चल पड़े। और वहाँ पर किसी नदी के किनारे बैठी नन्दश्री की इच्छा पूर्ण करने के लिए विचार करने लगे ॥२०-२१॥
आश्वास्येति जगामैष तां शुभां कलभाषिणीं । नदीतटे स्थितो यावत्तदुपायं विचितयन् ।। २२ ॥ तावत्तन्नगरे शस्य वसुपालस्य भूपतेः । । निर्गतः स्तंभमुन्मूल्य दंतीतुंगः सुदंतुरः ॥ २३ ॥ भंजयन् गृहद्वाराणि खंडयन् स्तंभसंतति । छिदयन् जनमग्रस्थं भिंदयन्वृक्षमालिकां ।। २४ ।। उन्मीलयल्लतागेहमुत्क्षिपन् पांशुनिर्भरं । अंकुशादीन् समुल्लंघ्य वार्यमाणोऽपिसज्जनः ॥ २५ ॥ चीत्कारेणैव बधिरीकुर्वश्च सकलं जगत् । आकारयन् दिशां नाथान्करोत्क्षेपेण वो मदात् ।। २६ ॥ व्याकुलीकृत्य सर्वं च पुरं हा हारवाकुलम् । निर्जगाम पुरान्नद्यां यत्रास्ते श्रेणिको नृपः ।। ।। २७ ॥ आगच्छन्तं नृपो वीक्ष्य दंतिनं पर्वतप्रभं । महामद समालीढ मुत्तस्थे युद्धसिद्धये ॥ २८ ॥ सनह्य सन्मुखीभूत्बा कार्यवाक्यप्रबंधतः ।। युद्धं चकार भूपालस्तेनामा जनवीक्षितः ॥ २६ ॥ करमुष्टयादि घातेन संकृत्य व्याकुलात्मकं । द्विरदं विमदं राजाऽचिरेण वशमानयत् ।। ३० ।।
उस समय उसी नगर के राजा वसुपाल का ऊँचे-ऊँचे दाँत को धारण करनेवाला एक मतवाला हाथी नगर से बड़े झपाटे से बाहर निकला । तथा प्रत्येक घर के द्वार को तोड़ता हुआ, बहुत से नगर के खम्भों को उखाड़ता हुआ, अनेक प्रकार के वृक्षों को नीचे गिराता हुआ, उत्तमोत्तम लता-मण्डपों को निर्मल करता हआ, अनेक सज्जन वीरों द्वारा रोकने पर भी नहीं रुकता हुआ, अनेक चीत्कार से समस्त दिशाओं को बधिर करता हुआ, एवं अपनी सूंड को ऊपर उठा दिग्गजों को भी मानो युद्ध करने के लिए ललकारता हुआ और समस्त नगर को
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