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श्रेणिक पुराणम्
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चिरं विहृत्य सद्देशान संबोध्य विवधान् जनान् । रत्नत्रयं समाकीर्ण्य प्रांते संन्यस्य युक्तितः ।। ६६ ।। आराध्याराधनां रम्यांमुक्त्वा प्राणान्समाधिना । नाके महधिकोदेवो जज्ञे देवीविराजितः ॥ ७० ॥
तीनों लोक में यशस्वी अतिशय सन्तुष्ट जैन धर्म के आराधक, नीतिपूर्वक प्रजा के पालक महाराज आनन्दपूर्वक राजगृह में रहने लगे। उनका पुत्र वारिषेण अतिशय बुद्धिमान, मनोहर, जैन धर्म में रति करने वाला एवं व्रतरूपी भूषण से भूषित था। कदाचित् राजकुमार वारिषेण ने चतुर्दशी का उपवास किया। इधर यह तो रात्रि में किसी वन में जाकर कार्योत्सर्ग धारण कर ध्यान करने लगा और उधर किसी वेश्या ने सेठ श्रीकीर्ति की सेठानी के गले में पड़ा अतिशय दैदीप्यमान सुन्दर हार देखा और हार देखते ही वह विचारने लगी
इस दिव्य हार के बिना संसार में मेरा जीवन विफल है। तथा ऐसा विचार, शीघ्र ही उदास हो अपने शयनागार में खाट पर गिर पड़ी। एक विद्युत नाम का चोर जो उसका आशिक था रात्रि में वेश्या के पास आया। उसने कई बार वेश्या से वचनालाप करना चाहा वेश्या ने जवाब तक न दिया किंतु जब वह चोर विशेष अनुनय करने लगा तो वह कहने लगी
प्रिय वल्लभ ! मैंने सेठ श्री कीर्ति की सेठानी के गले में हार देखा है। मैं उसे चाहती हैं। यदि मुझे हार न मिला तो मेरा जीवन निष्फल है और तुम्हारे साथ दोस्ती भी किसी काम की नहीं। वेश्या की ऐसी रूखो बात सुन चोर शीघ्र ही चला गया तथा सेठ श्रीकीर्ति के घर जाकर और हार चुराकर अपनी चतुरता से बाहर निकल आया। हार बड़ा चमकदार था इसलिए चोर ज्यों ही सड़क पर आया और त्यों ही कोतवाल ने हार का प्रकाश देखा ले जाने वाले को चोर
झ शीघ्र ही उसके.पीछे धावा बोला। चोर को और कोई रास्ता न सूझा वह शीघ्र ही भागता भागता श्मशान भूमि में घुस गया। जब वह श्मशान भूमि में घुसा तो उसे आगे को वहाँ कोई रास्ता न दीखा इसलिये उसने शीघ्र ही वाणिषेण कुमार के गले में हार डाल दिया और आप एक ओर छिप गया। हार की चमक से कोतवाल भागता-भागता कुमार के पास आया। कुमार को हार पहने देख शीघ्र ही दौड़ता-दौड़ता राजा के पास पहुँचा और कहने लगा--
राजन् ! यदि आपका पुत्र ही चोरी करता है तो चोरी करने से दूसरों को कैसे रोका जा सकता है ? राजकुमार का चोरी करना उसी प्रकार है जैसे बाड़ द्वारा खेत का खाना। कोतवाल की बात सुन इधर महाराज ने तो श्मशान भूमि की ओर गमन किया और उधर वारिषेण कुमार के व्रत के प्रभाव से हार फूल की माला बन गया । ज्यों ही महाराज ने यह दैवी अतिशय सुना तो वे कोतवाल की निंदा करने लगे। और कुमार के पास क्षमा मांगनी चाही। विद्यत चोर भी यह सब दश्य देख रहा था। उससे ये बातें न देखी गईं। वह शीघ्र ही महाराज के सम्मुख आया। तथा महाराज से अभयदान की प्रार्थना कर और अपना स्वरूप प्रकट कर जो कुछ सच्चा हाल था सारा कह सुनाया। जब महाराज ने चोर के मुख से सब समाचार सुन लिया तो उन्होंने वारिषेण कुमार से घर चलने के लिए कहा किंतु कुमार ने कहा
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